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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
संभवत: गणित सूक्ष्म मानसिक प्रवृत्तियों के रूप में ही समाहित हुआ हो । इस प्रकार, इस प्रकरण में क्रम-व्यत्यय, सूक्ष्म भेदाधिक्य एवं वैज्ञानिकता-ये सभी तथ्य तर्क-संगतता चाहते हैं । १५. अनुयोगों का क्रम
सामान्यतः यह माना जाता है कि जैन परम्परा में विविध विषयों के पृथक् रूप से वर्णन करने की अनुयोग परंपरा प्रायः पहली सदी (आचार्य आर्यरक्षित के समय) से प्रारंभ हुई है । पर दोनों ही परंपराओं में इनका क्रम भिन्न-भिन्न है । दिगम्बर परम्परा में यह क्रम प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग के रूप में है जबकि श्वेतांबर परंपरा में यह क्रम चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग एवं द्रव्यानुयोग के रूप में है । यहाँ दिगम्बरों का प्रथमानुयोग धर्मकथानुयोग हो गया है और उसका क्रम द्वितीय हो गया है। करणानुयोग गणितानुयोग हो गया है और 'करण' का अर्थ द्वितीयक चारित्र हो गया है । चरणानुयोग प्रथम स्थान पर आया है जिसमें प्राथमिक एवं द्वितीयक चारित्र समाहित हुआ है । द्रव्यानुयोग (अध्यात्म और तत्त्व विद्या) का स्थान दोनों में अंतिम है । विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दिगंबरों का क्रम अधिक तर्क-संगत है क्योंकि उदाहरण (प्रथमानुयोग-जीव चरितों) से चारित्र की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। चारित्र की सम्यक्त्वा से तत्त्व विद्या एवं प्रामाणिकता के प्रति रुचि बढ़ती है। यद्यपि अनुयोगों का क्रम स्थूल से सूक्ष्म की ओर दोनों परंपराओं में है पर नाम क्रम की भिन्नता का स्रोत और समय अन्वेषणीय है । १६. पुद्गल के स्पर्शादि गुणों में क्रम भेद
पुद्गल को स्पर्श चतुष्टय से परिभाषित किया जाता है । दिगंबर परंपरा के तत्त्वार्थ सूत्र आदि में उनका क्रम स्पर्श, रस, गंध एवं वर्ण के रूप में है जिसका तर्कसंगत समर्थन राजवार्तिक आदि ग्रंथों में उपलब्ध है । इसके विपर्यास में, श्वेतांबर आगमों में उनका क्रम रूप, रस, गंध एवं स्पर्श का है । यहाँ भी ऐसा प्रतीत होता है कि दिगम्बर परंपरा स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाती है और श्वेतांबर परंपरा इसके विपरीत दिशा में जाती है । इस क्रम-व्यत्यय का स्रोत एवं समय भी विचारणीय है । १७. सामाचारी के प्रकार
सामाचारी में साधुओं के सामान्य व्यवहारों से संबंधित प्रवृत्तियाँ निरूपित की जाती हैं । इसका विवरण एवं प्रकार अनेक दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रंथों में पाये जाते हैं । मूलाचार में सामाचारी के दो भेद हैं-सामान्य और विशेष तथा आवश्यक नियुक्ति में तीन भेद हैं (१) ओघ, (२) दशविध एवं (३) पद विभाग या विशेष । मूलाचार में ओघ को ही सामान्य दशविध के रूप में निरूपित किया गया है । भगवती आराधना में भी दशविध सामाचारी है । सामान्यतः सामाचारी से दशविध सामाचारी ही माना जाता है। विशेष जानकारी तो इसी का विस्तार है। यह दशविध सामाचरी पाँच प्रमुख ग्रंथों में दी गई है जो निम्न प्रकार है :
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