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________________ जैनों की सैद्धांतिक धारणाओं में क्रम-परिवर्तन १८५ कन्टेंट्स इन प्राकृत कैनन्स' । इसमें धार्मिक साहित्य में वर्णित विचार, आचार एवं घटनाओं में क्रमपरिवर्तन, नामभिन्नता, नाम एवं क्रमभिन्नता, संख्यात्मक एवं अवधारणात्मक भिन्नता तथा भौतिक निरीक्षणों की विविधता के तीस संदर्भ दिये हैं । यह भिन्नता परिवर्तन, संशोधन, विस्तारण या संक्षेपण की प्रतीक तो मानी ही जानी चाहिए । शास्त्रपारंगत विद्वानों से चर्चा करने पर यह मनोरंजक तथ्य सामने आता है कि वे उन भिन्नताओं को परिवर्तन मानने को तैयार ही नहीं लगते । आज का विद्यार्थी जानता है-जहाँ प्रवाह नहीं, वहाँ प्रगति नहीं । फिर भी, इन भिन्नताओं के परिप्रेक्ष्य में वे ज्ञान को प्रवाह रूप मानने को तैयार नहीं है । इसी कारण विश्वधर्म की क्षमता (प्रशास्ता, पवित्र पुस्तक, उत्तमता) रखने वाले जैन तंत्र के अनुयायी इस भूतल पर केवल ०.००४ प्रतिशत ही बने हुए हैं। किसी भी तंत्र की प्रवाहशीलता को न मानना उसकी प्रगति में बाधक ही सिद्ध होता है । इसी पृष्ठभूमि में कुछ ऐसे प्रकरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो धार्मिक आचार-विचारों से सम्बन्धित है और जिनसे यह प्रवाह अवरुद्ध या प्रगत हुआ होगा । यह अवरोध या प्रगति ही इस तंत्र की वैज्ञानिकता को व्यक्त करती है और इसके सिद्धांतों को विचारणीय परीक्षण के क्षेत्र में ला देती है । इन प्रकरणों में परिवर्तन का आधार क्या रहा होगा, और क्रम-परिवर्तन का क्या प्रभाव पड़ा है, उसके संबंध में कुछ विचार-बिंदु यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं । १. ज्ञान-दर्शन-चारित्र या दर्शन-ज्ञान-चारित्र ? आ० उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र का पहला सूत्र है-'सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' । यहाँ श्रद्धापूर्वक दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्रशस्त माना गया है । यह तीसरीचौथी सदी के प्रारंभ का ग्रन्थ है । उसके पूर्ववर्ती स्थानांग (३.५०९ एवं ३.४८९) आदि सूत्रों के तथा षट्खंडागम के समान प्राचीन कर्मवाद के ग्रंथों में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का क्रम बताया है । इस प्राचीन क्रम के परिवर्तन का आधार क्या हो सकता है ? क्या इसे बुद्धिवाद पर व्यक्तिवाद के प्रारंभ की विजय माना जाए जिसमें दर्शन के कारण (निःशंकित अंग ?) ज्ञान पूर्वाग्रही हो जावे । दर्शन का पहला अंग ही जिज्ञासा, शंका या संदेह का ऊर्ध्वगमन है । इसे बुद्धिवादी जगत् स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाता है । मुझे लगता है कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र का क्रम अधिक मनोवैज्ञानिक है । ज्ञानी की श्रद्धा भी बलवती होती है । २. मन-वचन-काय या काय-वचन-मन ? हम सभी प्रायः मन-वचन काय की चर्चा करते हैं । इससे प्रकट होता है कि सोचकर बोलो और करो । यह क्रम प्राचीन और आगमिक है । गुप्ति, दंड, गर्दा आदि के प्रकार इसी क्रम के निरूपक हैं (स्थानांग, पेज १६१-१६२), पर आ० उमास्वाति ने वहाँ भी क्रमपरिवर्तन किया है -"काय-वाङ्-मनः कर्मयोगः" । इस क्रम-परिवर्तन का आधार भी विचारणीय है। मन बडा है या काय ? क्रिया बड़ी है या विचारणा, जिसके आधार पर क्रिया की जाती है । कर्म के विकास, आस्रव एवं कर्म बंध की अवधारणा के इतिहास के विकास की दृष्टि से आ. उमास्वाति परंपरावादी सिद्ध होते हैं क्योंकि जैन धर्म में कुंदकुंद के युग से पूर्व भी भाव या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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