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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
मन की प्रधानता या प्राथमिकता की चर्चा चल पड़ी थी । मन भावों, विचारों, आवेगों आदि का आधार है । क्या उमास्वाति मन की गौणता स्वीकार कर भक्तिवाद की प्रस्तावना के रूप में मन को अंतिम स्थान देते हैं ? बुद्धिवादी युग मनपूर्वक क्रिया का समर्थक है । पश्चिमी विचारक भी इस क्रम के व्यत्यय पर विचार करने लगे हैं । फलतः यह क्रमव्यत्यय भी विचारणीय है । ३. संरंभ-समारंभ-आरंभ या संरंभ-आरंभ समारंभ ?
कर्मवाद और कषायवाद जैनों के दो प्रमुख सिद्धांत हैं । माला के १०८ मणियों का आधार कषायवाद का विस्तार है ४ x ३ x ३ x ३ (संरंभ आदि) इनमें संरंभ, समारंभ और आरंभ का क्रम आगमों में भन्न है और दिगम्बर ग्रंथों में भिन्न है । क्रमभिन्नता से किसी पद की अर्थ-भिन्नता भी हो गई है । (समारंभ) । श्वेतांबर ग्रंथों में (स्थानांग ३.१६ या ७-८४-८९) यह क्रम निम्न है :
१. आरंभ, संरंभ, समारंभ (परिताप पश्चात्ताप) ___ यहाँ क्रिया के आधार पर संकल्प के होने की सूचना है। साथ ही, यदि क्रिया अशुभ है, तो उसके लिये स्वाभाविक परिताप के मनोभाव होने का संकेत है। इस प्रकार, र कर्ममन-मनोवेग के आधार पर मन की अंतिम प्रमुखता बताई है । यह पूर्वोक्त आगमिक मान्यता के विपर्यास में लगती है एवं मन-काय के संबंध में प्रचलित दो परंपराओं का संकेत देती है । यह क्रम प्रक्षिप्त भी हो सकता है । इसके विपर्यास में, उमास्वाति ने (६.८ में) संरंभ-समारंभआरंभ का क्रम दिया है (विचार, तैयारी और क्रिया) जो व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से अधिक तर्क संगत लगता है। पर यहाँ भी, मन की मूलभूतता (६.१ के) मन की गौणता की तुलना में विचारणीय हो गई है । दिगंबर ग्रंथों का यह क्रम मन-वचन-काय के क्रम का प्रतिष्ठापक है जो (६.१ के) विपर्यास में है । यहाँ 'समारंभ' शब्द भौतिक क्रिया हेतु तैयारी के अर्थ में आया है, मनोवेगों के अर्थ में नहीं ।
आगमों में मन:प्रधान (बुद्धिवादी) वर्णन है, अत: उनका क्रम बुद्धिवादी चिंतन कहा जा सकता है । परिणमजन्य मनोवेग जीवन में सुधार भी ला सकते हैं । उसके विपर्यास में, दिगंबरों का क्रम व्यावहारिक अधिक है। इसमें शभता की वत्ति प्रच्छन्न ही है । ४. प्रदेश-प्रकृति-स्थिति-अनुभाग बंध या प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश बंध ?
आगमिक युग में एवं आ. कुंदकुंद के समय में कर्म-बंध के चार प्रकारों का क्रम प्रदेश, प्रकृति स्थिति, अनुभाग के रूप में रखा गया है । इसके विपर्यास में, षट्खंडागम एवं तत्त्वार्थ सत्र में इस क्रम में व्यत्यय हआ है (समयसार २९० कंदकंद भारती संस्करण, तत्त्वार्थ सत्र ८.३) । वस्तुतः पहला क्रम अधिक वैज्ञानिक लगता है । बिना प्रदेशों की संख्या के कर्म प्रकृतियों का निर्माण कैसे हो सकता है ? आ. विद्यानंद ने अपनी टीका में इस क्रम में किंचित् परिवर्तन व्यक्त किया है । इस व्यत्यय की व्याख्या अपेक्षित है।
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