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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
ऊर्जस्वी अलंकार के भामहादि के उदाहरणों में गर्व का भाव व्यक्तिगत है, ताकि अ० द० के उदाहरण में वह सामूहिक गर्व है । यह भाव अनौचित्यप्रेरित है, यह बात अ० द० ने नहीं बताई ।
अचानक बढ़िया सहाय मिलने से समाहित होता है । (७१) पूर्वाचार्यों का यह समाहित ही कार्य सुकरतारूप समाधि का बीज है ।
एक और तथ्य ध्यानार्ह कि रसवत्, आदि चतुर्विध अलंकार रसादि मुख्यरूप में प्रधानरूप में हो तभी रहते है । ध्वनिवादी की तरह गौणरूप में कभी नहीं । यहाँ भी अ० दः पूर्वाचार्यों की परंपरा का अनुसरण करता है ।
मिश्रालंकार वर्ग में संसृष्टि और संकर अलंकार समाविष्ट होते हैं । अ० द० में संसृष्टि की स्वीकृति है । (११५)
इन अलंकारों के अलावा आशी, भाव, रोध, एवं उत्तरालंकार तथा उद्भेद, व्यपदेशस्तुति, वलित और आदर्श को भी अ० द० में निर्दिष्ट किया गया है ।
भाव में गूढ भाव रुद्रट के भाव पर आधारित है और अन्यापदेश भाव समासोक्ति ही
रोध को आक्षेप से पृथक् नहीं माना जा सकता । (५०) उत्तर (९६) में गूढोत्तर को अनुगामी अप्पय्य दीक्षित ने स्वीकारा है । उद्भेद को भोज और नरेन्द्रप्रभ भाविक का ही एक भेद बताते हैं । (१२३) अ० द० का० आदर्श का उदाहरण अपर्तुति से मिलता है । व्यपदेश व्याजस्तुति का ही भेद प्रतीत होता है ।
अ० द० कार अनुप्रास और यमक दो शब्दालंकार भी निर्दिष्ट करते हैं । उन्होंने शब्दालंकारों को अर्थालंकारों के साथ साथ ही निरूपित किये हैं, अलग से नहीं । फलश्रुति
अ० द० की अलंकार संबन्धी विशेषताएँ निबद्ध करने के बाद निम्नोक्त मुद्दे सामने उभरते
१. अ० द० पर भामह, उद्भट और रुद्रट का प्रभाव स्वयंस्पष्ट है । २. अ० द० का समय निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता, फिरभी भोज के
सरस्वतीकण्ठाभरण से अ० द० का वैचारिकसाम्य देखा जा सकता है । ३. ध्वनि संबन्धी कोई ईषत् उल्लेख या चर्चा का इसमें अभाव है ।
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