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________________ अलंकारदप्पण: प्राकृत भाषा का एकमेव अलंकारग्रन्थ परिचय और कुछ विशेषताएँ १७९ विरोधमूलक वर्ग में अ० द० कार विरोध, विभावना और विशेषोक्ति ये तीन अलंकारों को स्वीकार करते हैं । - विरोध में 'आभास' की कोई बात नहीं बताई हालाँकि 'आभास' ही विरोध का प्राण है । (७१) उदाहरण आभासात्मक विरोध का जरूर है । (७३) अ० द० के अनुसार जहाँ गुण में वैकल्य हो किन्तु दूसरे गुण से उसका वैशिष्ट्य दिखाया जाय वहाँ विशेषालंकार कहा जाता है । ( = विशेषोक्ति) (५०) यह विशेष या विशेषोक्ति, वामनादि की विशेषोक्ति से मिलती है । इसमें फलाभाव का कोई निर्देश नहीं, इसलिए परवर्ती आलंकारिक इसे रूपकालंकार का एक भेद ही समझते हैं । जिसे दृढारोपरूपक कहा जा सकता है | १४ तर्कन्यायमूलक वर्ग में अनुमान और हेतु अलंकार समाविष्ट होते हैं । हेतु का दूसरा नाम काव्यलिंग भी है । मम्मटादि हेतु को काव्यलिंग में ही अंतर्भावित करते हैं । हेतु, सूक्ष्म और केश को भामह ने इनकार दिया है । अ० द० कार भी उक्त अलंकारों का स्वीकार नहीं करते । अ० द० कार का अनुमान लक्षण भोज से मिलता-जुलता हैं । १५ वाक्यन्यायमूलक वर्ग में यथासंख्य अलंकार प्रथम क्रम में आता है । अ० द० के मत में जब क्रम से पदार्थ निबद्ध किये जाते हैं तथा यथासंख्य सिद्ध होता है । अ० द० ने जो पर्याय अलंकार दिया है (६४) वह भामह और रुद्रोक्त पर्यायोक्त ही है । (३/८ और ७/४२) मम्मट रुय्यकादि तो पर्याय से क्रम से वर्णित वस्तु समझते हैं । इस तरह यहाँ भी अ० द० प्राचीन परंपरा को ही ज़ारी करता है । लोकन्यायमूलक वर्ग में मीलितादि अलंकारों का समावेश होता है, किन्तु अ० द० इनका स्वीकार नहीं करता । गूढार्थप्रतीतिमूलक वर्ग में से अ० द० कार स्वभावोक्ति और उदात्त अलंकार को स्वीकार करते हैं । अ० द० कार स्वभाव वर्णन को 'जाई' कहते हैं । जाति (६१) के उदाहरण सिरधरिअ - कलसा० इत्यादि में ग्रामकन्याओं की गति का सहज वर्णन है । (६२) उदात्त के दो भेद अ० द० बाताता है-रिद्धि उदात्त और महानुभाव के वर्णन । (९२) यही पूर्वाचार्यों का ऋद्धिमत् उदात् है । दूसरा उदात्त अंगभूत महापुरुषों का वर्णन है । 'किन्तु यहाँ रस के अंगभूत होने का निर्देश नहीं । चित्तवृत्तिमूलक अलंकार में रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी और समाहित का समावेश होता है । अ० द० भामह - दण्डी इत्यादि पूर्वाचार्यों के मत का अनुसरण करता है और प्रधान रस, भाव, भावाभास तथा शम को अनुक्रमेण रसित, प्रेमातिशय, ऊर्जा और समाहित नाम से निर्दिष्ट किया है | अ० द० का 'रसिअ' का लक्षण भामहानुसारी है— रसवद्दर्शिन स्पष्टशृंगारादिरसं यथा । ( ३६ ) और फुड सिंगाराइ - रसो सो रसिओ - (६४) ऐसे ही प्रेमातिशय (८९), ऊर्जा (८७) तथा (७१) आदि का निरूपण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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