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________________ १७८ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature अतिशयोक्ति को ही अतिशयोपमा मानता है । उदाहरण में व्यतिरेक, भ्रान्तिमान्, निगरणमूलक अतिशयोक्ति का संमिश्रण है । अ० द० की गुणकलिता किंचित् नवीन है । (अ० द० १७) एकक्रमा, ललितोपमा, और विगुणोपमा अ० द० की सर्वथा नवीन उपलब्धि है। (३९-४०) रूपक पर भामह का (४३, २/११) प्रभाव है उसी प्रकार उत्प्रेक्षा पर भी उनका (अ० द० ११२, २/९३) प्रभाव है। अ० द० में प्राप्त अतिशय अलंकार के उदाहरण से मीलित अलंकार की प्रतीति होती है । दण्डी के का० द० (२/२१५) के अतिशयोक्ति का उदाहरण कुछ इस तरह का ही है । अन्तर इतना है कि यहाँ भेदकतत्त्व मधुमक्खी का प्रतिपादन है, इससे नायिका के कपोल और स्वर्णमय चंपक पुष्प का भेद परखा जाता है । (अ० द० ५५) ___ अपहनुति, दीपक, और अर्थान्तन्यास अलंकार भामह के उक्त लक्षणों पर आधारित है। (अ० द० ८८, ८९, का० लं० २/२१, अ० द० ४५-४६, का० लं० २/२५-२६, अ० द० ४२, भामह २/७१) परिकर को अ० द० अन्यपरिकर नाम से निर्दिष्ट करते हैं (अ० द० ८३) । पूर्व कथित सदृश का वैसा कथन करना परिकर अलंकार है । वैसे यह लक्षण सर्वथा अलग है । अन्य आलंकारिकों ने परिकर का लक्षण साभिप्रायविशेषण माना है । इतना उल्लेखनीय है कि अर्थान्तरन्यास के बिलकुल विपरीत स्वरूप को अ० द० ने 'परिकर' माना है । 'अण्णो' से अन्य परिकर ही समझा जा सकता है । ____ अ० द० ने समासोक्ति का निर्देश नहीं किया, परंतु बहुत संभव है कि अ० द० के भावालंकार का दूसरा प्रकार जो अन्यापदेश नामक है, वही समासोक्ति है । भले ही उन्होंने समासोक्ति का नामनिर्देश न किया हो । अ० द० अन्य व्यपदेश में एक से दूसरा अर्थ-अभिप्राय निकलने की बात करते हैं । (अ० द० ४० ए) अमृतानन्दयोगी समासोक्ति का दूसरा नाम अन्यापदेश बताते हैं । __ अ० द० में व्यतिरेक अलंकार का स्वरूप एकदम भिन्न है। उपमेय उपमान से ज्यादा उत्कृष्ट हो-यह प्रचलित स्वरूप से काफ़ी अलगरूप अ० द० कार ने निर्धारित किया है । तदनुसार जाति अर्थात् स्वभावोक्ति अलंकार में कुछ विशेषता हो तो व्यतिरेक अलंकार होता है। अ० द० तुल्ययोगिता को संयोगिता नाम से पहचानता है । स्वरूपसाम्य तुल्ययोगिता से ही मेलजोल रखता है । एक ही काल और क्रिया में न्यून का विशिष्ट के साथ गुणसाम्य जो स्थापित किया जाता है. वह संयोगिता है ।१३ उपमारूपक को अ० द० में स्वतंत्र अलंकार माना गया है । यह अलंकार भामह और वामन में भी था, किन्तु वामन ने उसे संसृष्टि के अन्तर्गत रखा है । (का० लं० ३/३५ का० लं० सू० ४/३/३२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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