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________________ अलंकारदप्पण : प्राकृत भाषा का एकमेव अलंकारग्रन्थ - परिचय और कुछ विशेषताएँ १७७ व समर्थक भी रहे होंगे । यदि इनका समय हेमचन्द्र से पूर्व मानें, जैसा कि डॉ० भायाणी ने अनुमान किया है (ई० स० ९वीं) परंतु आचार्य हेमचन्द्र ने अपने काव्यानुशासन में अहीं भी अ० द० को निर्दिष्ट नहीं किया यह आश्चर्य का विषय है । वैसे तो हेमचन्द्र ने सभी पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों को नज़रअंदाज़ किया ही है । और भी हेमचन्द्र प्राकृत भाषा (=जैनी वाचं) के भारी समर्थक, प्रशंसक और सारस्वत भी है । अ० द० में प्राप्त 'असम' अलंकार संस्कृत अलंकार ग्रन्थों में सर्व प्रथम शोभाकरमित्र के अलंकाररत्नाकर (ई० स० १२वीं शती) में भी मिलता है । तो ऐसी प्रावाहिक परिस्थिति में हम अ० द० का समय ई० स० ९ से लेकर १३वीं तक अनुमानित कर सकते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में १३४ गाथाओं में शब्द और अर्थ के अलंकारों का निरूपण भामह, दण्डी, रुद्रट, (संभवतः) भोज जैसे पूर्वाचार्यों का अनुसरण करते हुए किया गया है । शब्दार्थालंकारों का कोई निश्चित कम या वर्गीकरण (=classification) प्राप्त नहीं होता है । अलंकारशास्त्र की परिभाषा में इसको प्रकरणग्रन्थ कहा जाना चाहिए क्योंकि काव्यशास्त्र के विविध तत्त्वों में से सिर्फ शब्द और अर्थ के कुल मिलाकर ४२ अलंकारों का एक ही अलंकार तत्त्व का प्रतिपादन हुआ है । प्रकरणग्रन्थ-खास करके शब्दार्थालंकारों पर लिखने का प्रारंभ संभवतः उद्भर ने किया है । उद्भट के 'काव्यालंकारसार' की ही प्रणाली का अनुसरण और कुछ हद तक अनुमोदन करते हुए रुय्यक का 'अलंकारसर्वस्व' रचा गया था । तत्पश्चात् शोभाकरमित्र का 'अलंकाररत्नाकर' और दीक्षितजी का 'कुवलयानन्द' तथा विश्वेश्वर का 'अलंकारकौस्तुभ' रचा गया है । इन ग्रन्थों में अ० द० की गौरवपूर्ण कडी भी निःसंदेह जुड़ती है। आगे चलकर हम इस परंपरा में अलंकार और उनके चढाव उतार की चर्चा को भी शामिल करेंगे । अ० द० के प्रारंभ में 'अलंकारपरंपरा' की स्तुति की है । अच्चंत-सुंदरं पि हु णिरलंकारं जणंमि कीरंतं । कामिणिमुहं व कव्वं होइ पसण्णं पि विच्छाअं ॥ -(अ० द० ३) काव्य और सुन्दरी का मुख भले ही सुन्दर और प्रसन्न हो, किन्तु अलंकाररहित हो तो लोगों को शोभारहित ही लगते हैं । अ० द० अलंकारों की अनन्तता दंडी की तरह ही मानता है । अ० द० ने अलंकारों का आरंभ उपमा से किया है । उपमालक्षण पर भामह का प्रभाव स्पष्ट है । अ० द० ने उपमा के १७ भेद निरूपित किये हैं। अ० द० के उपमा भेद प्रतिवस्तूपमा, असमोपमा, केशोपमा आदि भेद अनुगामी आलंकारिकों में स्वतंत्र अलंकार के रूप में निरूपित किये हैं । असमोपमा ही शोभाकर और जगन्नाथ में 'असम' नामक स्वतंत्र अलंकार में परिवर्तित हुआ है । अ० द० के अन्य उपमा भेदों पर दण्डी का प्रभाव स्वयं स्पष्ट है । अ० द० (३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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