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Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
का भी यथोचित परिशीलन किया है ।
डॉ० के० आर० चन्द्र की अर्धमागधी की खोज के सन्दर्भ में उनकी कई उपलब्धियाँ ध्यातव्य हैं । जैसे : उन्होंने पहली बार अशोक के शिलालेखों की भाषा के साथ आचारांग की भाषा की तुलना शास्त्रीय पद्धति से की है । भगवान् महावीर की उपदेश-भाषा अर्धमागधी के मूलस्वरूप का निर्धारण उनका उपलब्धिमूलक दूसरा प्रयत्न है । उन्होंने प्रकाशित जैन आगमों--- 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'आचारांग-नियुक्ति', 'ऋषिभाषित' आदि के पाठों की परम्परा परित : परीक्षण किया है और प्रमाणित किया है कि जैनागमों का प्रकाशन भाषा के मूल स्वरूप को अपेक्षित रूप से जाने विना ही हुआ है । यह भी उनकी एक विशिष्ट वैचारिक उपलब्धि है । इन उपलब्धियों के अतिरिक्त उन्होंने आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण का नई दृष्टि से अध्ययन अपने इस ग्रन्थ में किया है । इस सन्दर्भ में डॉ० चन्द्र द्वारा किया गया 'आचारांग' के प्रथमश्रुतस्कन्ध में प्रयुक्त 'क्षेत्रज्ञ' शब्द के अर्धमागधी रूप का भाषिक अध्ययन उनकी नई शोधोपलब्धि के रूप में स्वीकार्य है ।
डॉ० चन्द्र की विचार-प्रणाली में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष दोनों को समान मूल्य दिया गया है । वह पहले पूर्व पक्ष को उपस्थापित करते हैं, तदनन्तर उत्तरपक्ष प्रस्तुत करते हैं । 'क्षेत्रज्ञ', शब्द के विवेचन के क्रम में उन्होंने पूर्व पक्ष के विवेचन को विशदता से उपन्यकृत किया है
और अपने उत्तरपक्ष को सार रूप में उपस्थित करते हुए लिखा है कि अर्धमागधी भाषा में मूलतः 'खेत्तन्न' शब्द ही था, जो 'क्षेत्रज्ञ' अर्थात् 'आत्मज्ञ' अर्थ से सम्बद्ध था । 'खेत्तन्न' का 'खेदज्ञ' के रूप में प्रस्तवन परवर्ती काल की देन है । इन प्रसंग में उनका सहज ग्राह्य तर्क है कि बदलती हुई प्राकृत-भाषा की, ध्वनि-परिवर्तन की प्रवृत्ति के प्रभाव से 'खेत्तन्न' शब्द ने कालानुक्रम से अनेक रंग-रूप बदले और वे सभी रूपान्तर 'आचारांग' के विभिन्न संस्करणों प्राप्य हैं । किन्तु निष्कर्षरूप में डॉ. चन्द्र का मानना है कि 'खेत्तन्न' (क्षेत्रज्ञ) पाठ ही उचित, उपयुक्त और प्राचीन माना जाना चाहिए ।
__डॉ० चन्द्र ने अपनी गर्वोक्ति का परिहार करते हुए निरहंकार भाव से कहा है कि उनका प्राचीन अर्धमागधी का यह अन्वेषण हस्तलिखित प्रतियों, शिलालेखों और प्राचीन जैनागमों पर आधृत है । उनका खयाल है कि इस सन्दर्भ में अभी और आगे कार्य करने की आवश्यकता है । किन्तु, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि डॉ० चन्द्र की यह कृति पार्यन्तिक न होकर भी जैनागमों की संशोधन प्रक्रिया को एक नई दिशा देती है। इस प्रकार, उन्होंने जैनागमों के शोधानुशीलन-क्षेत्र का बहुत ही उपकार किया है, जिसके लिए तद्विषयक शोधकर्ता उनका सदा कृतज्ञ रहेगा ।
अर्धमागधी के सम्बन्ध में उसकी भाषिक स्थिति को स्पष्ट करते हुए डॉ० चन्द्र ने बड़े महत्त्व की बात लिखी है कि अर्धमागधी के आगम ग्रन्थों के सम्पादकों की सम्पादन-पद्धति एक समान नहीं रही है । सम्पादकों ने विभक्तियों और प्रत्ययों में कभी प्राचीनता को मूल्य दिया है तो कभी परवर्ती काल के प्रभाव को । यहाँ ज्ञातव्य यह है कि अर्धमागधी एक प्राचीन
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