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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में डॉ० चन्द्र का अवदान
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प्राकृत-भाषा है, जो महाराष्ट्री प्राकृत से बहुत पुरानी है । प्राचीन अर्धमागधी आगम-साहित्य का सर्जन भारत के पूर्व क्षेत्र में हुआ है और आगमों की प्रथम वाचना का समय अशोक के शिलालेखों से पूर्ववर्ती है । इस दृष्टि से अर्धमागधी का महाराष्ट्रीकरण निर्विवाद है । इस प्रकार, आगमग्रन्थों में अर्धमागधी की स्थिति की विवेचना करते हए डॉ० चन्द्र ने निष्कर्ष रूप में अपना यह पूर्वाग्रह रहित सर्वजनग्राह्य मत व्यक्त किया है कि भाषिक विकास की दृष्टि से यथाप्राप्य प्राचीन पाठों को भी अपनाया जाना चाहिए, ताकि उसकी (अर्धमागधी की) प्राचीनता सुरक्षित रह सके।
डॉ० चन्द्र ने अर्धमागधी की प्राचीनता की ओर संकेत करते हुए अपना यह तर्क प्रस्तुत किया है कि प्राचीन प्रयोग अर्धमागधी की प्राचीनता सिद्ध करते हैं और कभी कभी तो वे प्रयोग उसकी पालिभाषा से समानता की सी प्रतीति कराते हैं । मूलतः अर्धमागधी-साहित्य की शतियों पहले (ईसवी-पूर्व चतुर्थ शती) हुई थी, इसीलिए इसमें पालि के समान एवं अन्य प्रकार के भी भाषिक प्रयोग उपलब्ध होते हैं । यह अर्धमागधी भाषा निश्चय ही महाराष्ट्री और शौरसेनी से पूर्वकालीन है । इसमें वर्तनी और ध्वनिगत परिवर्तन (मध्यवर्ती व्यंजनों का लोप इत्यादि) कालान्तर में घटित हुए हैं।
कुल मिलाकर, अर्धमागधी के भाषिक अध्ययन-अनुशीलन के अधीतक प्रमाण-पुरुष डॉ० चन्द्र की प्राचीन अर्धमागधी की खोज से सम्बद्ध यह अद्वितीय कृति अर्धमागधीनिबद्ध जैनागमों के पाठालोचन और पाठ-सम्पादन के क्षेत्र में सर्वथा नवीन अवदान के रूप में स्वीकरणीय है । प्रज्ञावान् लेखक का यह प्रयास निश्चय ही आशंसनीय है।
डॉ. चन्द्र प्राकृत-भाषाओं के प्रमुख अध्येताओं में अन्यतम हैं और अर्धमागधी का अध्ययन उनके भाषिक वाङ्मयतप की साधना से जुड़ा हुआ है । उनकी उल्लेखनीय भाषाशास्त्रीय कृति 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' का प्रकाशन प्राकृत-भाषा के अध्ययन की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण घटना है, इसलिए कि इससे प्राचीन अर्धमागधी के मूल स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है । भाषाशास्त्र के अध्ययन की प्रातिभ शक्ति से सम्पन्न डॉ० चन्द्र ने भाषिक प्रतिभा, साहित्यिक चेतना
और सारस्वत श्रम के विनियोग द्वारा अर्धमागधी की प्राचीनता के अन्वेषण को अनेक नये आयाम दिये हैं । अवश्य ही यह एक ऐतिहासिक मूल्य का कार्य है ।
प्रस्तुत कृति में अर्धमागधी-भाषा के प्रकृतिगत और प्रवृत्तिगत अध्ययन के अन्तस्तल तक पहुँचने का मूल्यवान् प्रयास परिलक्षित होता है । इस प्रकार, यह कृति भाषिक मूल्यों के आकलन के सन्दर्भ में अर्धमागधी का विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है ।
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