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________________ प्राचीन अर्धमागधी की खोज में डॉ० चन्द्र का अवदान प्राचीन अर्धमागधी की खोज के सन्दर्भ में लिखे गये शोधपूर्ण नातिदीर्घ आठ लेखों का महत्त्वपूर्ण संकलन है, जिसमें उनका मूल लक्ष्य प्रायः अशोक के शिलालेखों की भाषा के साथ 'आचारांग' की भाषा के तुलनात्मक अध्ययन तक केन्द्रित है और इस सन्दर्भ में उन्होंने अशोक के शिलालेख, पालिपिटक तथा जैनागम 'आचारांग' की भाषाओं का समेलित और व्यतिरेकी दोनों प्रकार के अनुशीलन का वैदुष्यपूर्ण और आशंसनीय चेष्टा की है । १६७ डॉ० चन्द्र की इस अध्ययन - परम्परा को सुश्री शोभना आर. शाह ने ईसवी पूर्व द्वितीयप्रथम शती के खारवेल के प्राचीन शिलालेख ( उत्कल के हाथीगुम्फा में प्राप्त) की भाषा के साथ 'आचारांग' और 'प्रवचनसार' की भाषा की तुलना करके ततोऽधिक विकसित किया है और सिद्ध किया है कि आचारांग की अर्धमागधी भाषा और खारवेल के शिलालेख की भाषा में बहुत कुछ सादृश्य है । प्राचीन अर्धमागधी की भाषिक प्रकृति और प्रवृत्ति का पुंखानुपुंख अध्ययन ही डॉ० चन्द्र की उक्त कृति का प्रमुख लक्ष्य है । इस कृति में यथासंकलित आलेखों के विषय - शीर्ष इस प्रकार हैं : । १. 'जैन आगम ग्रन्थों के विविध संस्करणों में अर्धमागधी की स्थिति, २. 'अर्ध मागधी में प्राचीन भाषाकीय तत्त्व, ३. अर्धमागधी आगम-ग्रन्थों की प्राचीनता और उनकी रचना का स्थल', ४. 'आचार्य श्री हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण की अर्धमागधी भाषा', ५. 'प्राचीन अर्धमागधी प्राकृत की मुख्य लाक्षणिकताएँ,' ६. 'क्षेत्रज्ञ' शब्द का अर्धमागधी रूप', ७ 'आचारांग के उपोद्घात के वाक्य का पाठ' तथा ८. 'मूल अर्धमागधी की पुनः रचना : एक प्रयत्न' । यथोक्त आलेखों के सटीक शीर्षकों से उनमें प्रतिपादित विषयों का प्रतिपाद्य स्वतः स्पष्ट है । इस क्रम में डॉ० चन्द्र ने अर्धमागधी के तद्धितीय और कृदन्तीय दोनों प्रकार के शब्दों का व्यापक पाठालोचन किया है और पाठालोचन के प्रसंग में उन्होंने भाषाविज्ञान के प्रायः सभी आयामों का -- -- जैसे ध्वनि-परिवर्तन, वर्णलोप, वर्ण-विपर्यय, उद्वृत्तस्वर, स्वरभक्ति, श्रुतिभिन्नता, उच्चारण-प्रयत्न आदि का उपयोग करते हुए उन पर सूक्ष्मेक्षिकापूर्वक विचार किया है और इस भाषिक विवेचन के निमित्त उन्होंने जैन विश्वभारती, लाडनूँ, आगमोदय समिति, मेहेसाणा, महावीर जैन विद्यालय, बम्बई (अवि मुम्बई), एम० ए० मेहेण्डले, जे शार्पेण्टियर, डॉ० वाल्थेट शुब्रिंग, डॉ० पिशेल, लुडविग ऑल्सडोर्फ आदि द्वारा स्वीकृत पाठभेदों को विवेच्य के आधार के रूप में स्वीकार किया है । कृतविद्य भाषाशास्त्री डॉ० चन्द्र ने अपने स्वीकृत शोध-श्रम के प्रति पूरी ईमानदारी से काम लिया है और इस क्रम में जैनागमों— 'आचारांग,' 'सूत्रकृतांग', 'स्थानांग', व्याख्याप्रज्ञप्ति', 'ज्ञातृधर्मकथा', 'कल्पसूत्र', 'उपासकदशासूत्र', 'औपपातिक सूत्र', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक', 'ऋषिभाषित' आदि तथा पालि आगमों— 'सुत्तनिपात' आदि के गहन अध्ययन का विस्मयकारी परिचय दिया है । इसके अतिरिक्त शोधश्रमी लेखक ने अपने भासिक अध्ययन के उपजीव्य के रूप में शिलालेखों को भी अपेक्षित मूल्य दिया है। अशोक के शिलालेखों को मूल्य देते हुए उन्होंने प्रत्यासत्त्या शहबाजगढ़ी, धौली, मानसेहरा, गिरनार, जौगड़, कालसी आदि शिलालेखों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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