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प्राचीन अर्धमागधी की खोज में डॉ० चन्द्र का अवदान
रंजनसूरिदेव
संस्कृत और प्राकृत के पाणिनिकल्प महावैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने कालोत्तीर्ण व्याकरण-ग्रन्थ 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के प्रारम्भ (सूत्र सं० ३) में ही लिखा है कि 'आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते', अर्थात् ऋषिप्रोक्त होने के कारण प्राकृत भाषा में सभी विधियों का विकल्पन, यानी प्रयोग-वैविध्य के स्वातन्त्र्य का अवकाश रहता है । इसीलिए अर्धमागधी प्राकृत ही क्यों, महाराष्ट्री और शौरसेनी प्राकृत में भी प्रयोग की विविधता और विचित्रता सहज ही परिलक्षित होती
संस्कृत के समानान्तर प्रवाहित होती हुई प्राकृत-भाषा चूँकि लोकजीवन के बीच से गुजरनेवाली भाषा रही है, इसीलिए इसमें विभिन्न प्रदेशों की लोकभाषाओं की, प्रकृतियों और प्रवृत्तियों का समावेश होने से प्रयोगबाहुल्य अस्वाभाविक नहीं है । विशेषतः प्राचीनकाल के शिलालेख, जिनमें अशोक के शिलालेख अतिशय महाघ हैं, प्रायः जनजीवन में सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के उन्नयन के निमित्त उत्कीर्ण कराये जाते थे, इसीलिए उनमें लोक-व्यवहार के उपयुक्त भाषिक प्रयोगों के प्रति अधिक आग्रह रहता था, इसलिए भी तद्विषयक प्राकृतों में प्रायोगिक विविधता का सहज समावेश हुआ । कदाचित् इन्हीं तत्त्वों को लक्ष्य कर आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा कि 'आर्षं प्राकृतं बहुलं भवति ।' जो हो, भाषाओं के प्रयोग-वैविध्य और प्रयोग-वैचित्र्य का आग्रह अध्ययन और अनुशीलन भाषाशास्त्रियों के लिए पुराकाल से ही एक रोचक प्रसंग रहा है।
आन्तरिक प्रसन्नता की बात है कि प्राकृत के मर्मज्ञ मनीषी डॉ० के० आर० चन्द्र ने जैनागमों की भाषा अर्धमागधी के प्रयोग-वैविध्य की गहराई से खोज-बीन करने के अपने सारस्वत संकल्प को क्रियान्वित करने का अतिशय सफल और प्राकृत-भाषा के शोध-अधीतियों के लिए सहज अनुकरणीय विशिष्ट मौलिक प्रयत्न किया है । इनका यह प्रयत्न 'प्राचीन अर्धमागधी की खोज में' नाम से ग्रन्थाकार प्रकाशित हुआ है । अवश्य ही, डॉ० चन्द्र का इस कृति के माध्यम से प्राचीन अर्धमागधी के शोधगर्भ अध्ययन, रून्वेषण के क्षेत्र में किया गया यह भाषिक पदनिक्षेप डॉ. पिशेल के एतद्विषयक अध्ययन को आगे बढ़ानेवाला तो है ही, अपने-अपने क्रोशशिलात्मक और एतिहासिक महत्त्व भी रखता है ।
भाषाव्यसनी विद्वान् डॉ० चन्द्र की अपनी सार्थक संज्ञा से समन्वित यह शोधगर्भ कृति
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