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________________ नियुक्ति की संख्या एवं उसकी प्राचीनता ४. दशवैकालिकनियुक्ति में नियुक्तिकार ने लगभग अध्ययन के नामगत शब्दों की व्याख्या अधिक की है। अन्य अध्ययनों की भाँति पाँचवें अध्ययन में भी 'पिंड' और 'एषणा' इन दो शब्दों की व्याख्या की है। यदि पिंडनियुक्ति दशवैकालिकनियुक्ति की पूरक है तो अलग से नियुक्तिकार यहाँ गाथाएँ नहीं लिखते तथा पिंड शब्द के निक्षेप भी पिंडनियुक्ति में पुनरुक्त नहीं करते । ५. ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति को कुछ जैन सम्प्रदाय ४५ आगमों के अंतर्गत मानते हैं अतः इस बात से स्पष्ट होता है कि आचार्य भद्रबाहु द्वारा इसकी स्वतंत्र रचना की गयी होगी । ओघनियुक्ति की द्रोणाचार्य की टीका में भी उल्लेख मिलता है कि साधुओं के हित के लिए चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु ने नवम पूर्व की तृतीय आचार-वस्तु से इसका नि!हण किया । ६. ओघनियुक्ति को आवश्यकनियुक्ति का पूरक नहीं कहा जा सकता क्योंकि आवश्यकनियुक्ति की अस्वाध्याय नियुक्ति का पूरा प्रकरण ओघनियुक्ति में है । यदि यह आवश्यकनियुक्ति का पूरक ग्रंथ होता तो इतनी गाथाओं की पुनरुक्ति नहीं होती । ७. निशीथ आचारांग की पंचम चूला के रूप में प्रसिद्ध है किन्तु आज इसका स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है । आचारांगनियुक्ति की अंतिम गाथा में नियुक्तिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि पंचमलूचा निशीथ की नियुक्ति मैं आगे कहूँगा । निशीथ चूर्णिकार ने भी अपनी मंगलाचरण की गाथा में कहा है 'भणिया विमुत्ति चूला अहुणावसरो निसीहचूलाए' उनके इस कथन से इस ग्रंथ का पृथक् अस्तित्व स्वतः सिद्ध है अन्यथा वे ऐसा उल्लेख न कर आचारांगनियुक्ति के साथ ही इसकी रचना कर देते । ८. इस संदर्भ में एक संभावना यह भी की जा सकती है कि आचारांग की चार चूलाओं की नियुक्ति तो अत्यंत संक्षिप्त शैली में है किन्तु निशीथनियुक्ति अत्यंत विस्तृत है । इसकी रचना शैली भी अन्य नियुक्तियों से भिन्न है अत: बहुत संभव है कि भद्रबाहु द्वितीय ने इसे विस्तार देकर इसका स्वतंत्र महत्त्व स्थापित कर दिया हो । आचार्य भद्रबाहु जहाँ दस नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं, वहाँ निशीथ का नामोल्लेख नहीं है । यह चिंतन का प्रारम्भिक बिन्दु है । अभी इस बारे में और अधिक गहन चिंतन की आवश्यकता है । ९. पंचकल्पनियुक्ति को भी बृहत्कल्पनियुक्ति की पूरक नियुक्ति नहीं माना जा सकता है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि आचार्य भद्रबाहु ने 'कप्प' शब्द से पंचकल्प और बृहत्कल्प इन दोनों नियुक्तियों का समावेश कर दिया हो । नियुक्ति की प्राचीनता किसी भी ग्रंथ के रचनाकाल का निर्धारण अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है । रचनाकाल के निर्धारण में लेखक के जीवन का गहरा संबंध रहता है । रचनाकार का समय निर्धारित होने के बाद उसकी कृति का रचना-काल निर्धारित करना कठिन नहीं होता । भद्रबाहु नाम के दो आचार्य विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं । दोनों ने ही साहित्य-सृजन के क्षेत्र में कार्य किया इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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