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________________ १५६ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कंध, ७. बृहत्कल्प, ८. व्यवहार, ९. सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. ऋषिभाषित । हरिभद्र ने 'इसिभासियाणं च' शब्द की व्याख्या में देवेन्द्रस्तव आदि की नियुक्ति का भी उल्लेख किया है। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ निर्यक्तियाँ ही प्राप्त हैं। ऐसा संभव लगता है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में दस नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा की लेकिन वे आठ नियुक्तियों की रचना ही कर सके । दूसरा संभावित विकल्प यह भी स्पष्ट है कि अन्य आगम साहित्य की भांति कुछ नियुक्तियाँ भी काल के अंतराल में लुप्त हो गयीं । इसके अतिरिक्त पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति, पंचकल्पनियुक्ति और निशीथनियुक्ति आदि का भी स्वतंत्र अस्तित्व मिलता है । डा० घाटगे के अनुसार ये क्रमशः दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति की पूरक नियुक्तियाँ हैं । इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह है कि ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति और निशीथनियुक्ति जैसी स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यकनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति और आचारांगनियुक्ति का पूरक कैसे माना जा सकता है ? इस विषय में कुछ बिंदुओ पर विचार करना आवश्यक लगता है । १. यद्यपि आचार्य मलयगिरि पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का अंग मानते हुए कहते हैं कि दशवैकालिकनियुक्ति की रचना चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु ने की । दशवैकालिक के पिंडैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर बहत विस्तृत निर्यक्ति की रचना हो जाने के कारण इसको अलग स्वतंत्र शास्त्र के रूप में पिंडनियुक्ति नाम दे दिया गया । इसका हेतु बताते हुए आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि इसीलिए पिंडनियुक्ति के आदि में मंगलाचरण नहीं किया गया क्योंकि दशवैकालिक के प्रारम्भ में मंगलाचरण कर दिया गया था । (पिनिटी ५.१) लेकिन इस संदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि मंगलाचरण की परम्परा बहुत बाद की है । छेदसूत्र और मूलसूत्रों का प्रारम्भ भी नमस्कारपूर्वक नहीं हुआ है । मंगलाचरण की परम्परा विक्रम की तीसरी शताब्दी के बाद की है। दूसरी बात मलयगिरि की टीका के अतिरिक्त ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता अतः स्पष्ट है कि केवल इस एक उल्लेख मात्र से पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का पूरक नहीं माना जा सकता है। दूसरी बात दशवैकालिक नियुक्ति के मंगलाचरण की गाथा केवल हारिभद्रीय टीका में मिलती है । स्थविर अगस्त्यसिंह तथा जिनदास महत्तरकृत दशवैकालिक की चूर्णियों में इस गाथा का कोई संकेत नहीं हैं। इससे भी स्पष्ट है कि मंगलाचरण की गाथा बाद में जोडी गयी है । ऐसा अधिक संभव लगता है कि विषय-साम्य की दृष्टि से पिंडनियुक्ति को दशवैकालिकनियुक्ति का पूरक मान लिया गया । २. दशवैकालिकनियुक्ति में द्रव्यैषणा के प्रसंग में कहा गया है कि यहाँ पिंडनियुक्ति कहनी चाहिए । इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भद्रबाहु ने पिंडनियुक्ति की रचना दशवैकालिकनियुक्ति से पूर्व कर दी थी। ३. पिंडनियुक्ति आचार्य भद्रबाहु कृत है इसका एक प्रमाण यह है कि निभा (४३९२) पिंडनियुक्ति की गाथा है । चूर्णिकार ने इस गाथा के लिए 'एसा भद्दबाहुकया निज्जुत्तिगाहा' का उल्लेख किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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