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________________ १४८ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature का प्रश्न जब उपस्थित हुआ है, तब वह विचारतंतु को तार्किक दृष्टि से विस्तृत करने का मन हो यह भी स्वाभाविक है । इसलिए एक सलाह ऐसा भी देता हूँ कि जिन संस्कृत शब्दों के तद्भव शब्द प्राकृत में भिन्न भिन्न समय में भिन्न-भिन्न स्वरूप में उपयोग में लिए गए हैं, उनमें से ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से जो प्राचीन और प्रथम तद्भवरूप का विशेष आदर करना, और जो रूप निश्चितरूप से उत्तरवर्ती 'काल का तद्भवरूप हो उसका अस्वीकार करना चाहिए । उदाहरण के तौर पर संस्कत दक्षिण शब्द लें । उसके दक्खिण, दाखिण और दाहिणो ऐसे विभिन्न प्राकृतरूप उपलब्ध होते हैं । तो इन तीनों वैकल्पिक रूपों में से कालानुक्रम की दृष्टि से जो ध्वनिशास्त्रीय दृष्टि से प्रथम रूपान्तर हो (यानि कि दक्खिण) उसीका पाठपसंदगी में आदर करना चाहिए । - जैनागमों के वर्तमान में प्राप्त पाठांतर अधिकतर ध्वनिशास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत भाषा के ऐसे वैकल्पिक रूप हैं । अतः उनकी पसंदगी में भी कालानुक्रम की दृष्टि से जो प्रथम परिवर्तन हो उसका विशेष आदर करना ही युक्तिसंगत है । इस सन्दर्भ में और भी एक स्पष्टता करना आवश्यक है कि उपलब्ध जैनागमों में ऐसे वैकल्पिक रूपों में से जो उत्तरवर्तीकाल में विकसितरूप (उदा. के तौर पर दाहिण) हो उसे सांख्यिक दृष्टि से अधिक बार प्रयुक्त हुआ हो और पूर्वकालिक रूपांतर (उदा. दक्खिण) एक ही बार प्रयुक्त हुआ हो तो भी उस पूर्वकालिक रूप का ही स्वीकार करना चाहिए क्योंकि पाठसमीक्षा का यह सिद्धान्त है कि "हस्तप्रतियों की संख्या को नहीं किन्तु आंतरिक और अनुलेखनीय संभावना को ध्यान में लें ॥" 000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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