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जैनागमों के पाठसम्पादन में प्राचीन भाषाकीय स्वरूप का पुनःस्थापन
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दिया है, जो वास्तव में परवर्तीकाल की प्राकृत भाषा का लक्षण है ।१२
केवल ऐतिहातिक तथ्य पर आधारित, डॉ. के. आर. चन्द्राजी की प्रस्तुति को यदि ध्यान में नहीं लिया गया तो कोई भी व्यक्ति जैनागमों को भाषाकीय दृष्टि से इस्वीसन् । के बाद की आधुनिक रचना मानने की भूल कर लेगा । यह स्थिति स्वाभाविकरूप से ही भयावह है । और प्रस्तुत लेख के अत्यल्पज्ञ लेखक को ऐसा प्रतीत होता है कि
'सहायक सामग्री' के रूप में 'चूर्णि' में से प्राप्त पाठ यदि उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों और शीलाचार्यादि की 'संस्कृत वृत्ति' से भी प्राचीन हो तो उसकी मूलपाठ के रूप में प्रतिष्ठा करनी चाहिए और वह पाठ दुर्बोध हो तो उसके अर्थघटन के लिए यत्न करना चाहिए । क्योंकि पाठसमीक्षा का एक अधिनियम यह है कि 'कठिन पाठ को प्रथम पसंद करो ।' (Prefer the harder reading) पाठपरंपरा के उपरि निर्दिष्ट वंशवृक्ष को सूक्ष्म तर्क से जाँचें तो १. 'माथुरी वाचना' जिसका पाठ देवर्धिगणि की वाचना में प्रतिबिंबित हुआ है, वह और २. नागार्जुनीय वाचना, जिसके कुछ पाठान्तरों को (ही) नोट किया गया है, इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करके, पाटलिपुत्र की प्रथम बैठक के प्राचीनतम पाठ का 'अनु-सन्धान' करना चाहिए । क्योंकि उक्त वंशवृक्ष की दृष्टि से नागार्जुनीय पाठपरंपरा सीधे ही पाटलिपुत्र की पाठ-परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है, (और वह भी वलभी में से ही प्राप्त हुई थी ।) इसलिए वह आंशिकरूप से सुरक्षित पाठ का मूल्य प्राचीनता और मौलिकता के कारण असाधारण है । अद्यावधि इस दिशा में किसी संशोधक ने प्रयास न किया हो तो वह भी करने जैसा है । इति दिक् ॥ प्राचीन भाषाकीय स्वरूप का पुनः स्थापन :
प्रोफेसर के. आर. चन्द्राजी ने 'आचारांगसूत्र' के पाठसंपादन में मुनिश्री जम्बूविजयजी के द्वारा उपयुक्त हस्तप्रतियों में सुरक्षित विविध पाठान्तरों, और सूत्रकृतांग, इसिभासिया, उत्तराध्ययन, दशवैकालिकादि प्राचीनतम ग्रन्थों में से प्राचीन अर्धमागधी भाषा की लाक्षणिकताओं को दिखाने का सफल और प्रशंसनीय प्रयास किया है । उन्होंने बताया है कि उनके निष्कर्ष पूर्वभारत के अशोककालीन शिलालेखों में प्राप्त भाषा के स्वरूप से समर्थित भी होते हैं ।१३
'उनके मत से १. शब्द के मध्यवर्ती व्यंजनों क, त, द, का लोप न होकर वे व्यंजन यथावत रहते हों । २. अघोषव्यंजन, जैसे कि क, त, थ का घोषीकरण होकर अनुक्रम से ग, द और ध में परिवर्तन होता है । ३. संयुक्ताक्षर 'ज्ञ' का 'न' में परिवर्तन होता हो वैसे (क्षेत्रज्ञ वगैरह) शब्दों और ४. सप्तमी विभक्ति एकवचन का स्सि प्रत्यय जिसमें दिखाई देता हो वैसे शब्द (पाठान्तर) जो एक ओर आचारांगादि की किसी न किसी हस्तप्रत में प्राप्त हो, और दूसरी
ओर वह ई० स० पूर्व ३०० के पूर्वभारतीय अशोककालीन शिलालेखों की भाषा के रूपों से समर्थित भी हो रहे हों । वैसे पाठान्तरों को ही प्राचीनतम अर्धमागधी का पाठ गिनकर समीक्षित आवृत्ति में स्थान देना चाहिए ।१४
इस तरह से, जैनागमों की वाचना में प्राचीन अर्धमागधी के भाषास्वरूप की पुनः स्थापना
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