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जैनागमों के पाठसम्पादन में प्राचीन भाषाकीय स्वरूप का पुनःस्थापन
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ग. हस्तलिखित प्रतियों में जो पाठ प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु चूर्णि टीका के आधार पर जो पाठ अत्यन्त जरूरी लगा, ऐसे पाठ को [ ] इस तरह के चौरस कोष्टक में उन्होंने रखा
मुनि श्री पुण्यविजयजी ने नंदिसुत्त और अणुओगदाराई के संपादन के बारे में लिखा है कि 'जब चूर्णिकार या वृत्तिकार अलग-अलग पाठभेदों को स्वीकार करके व्याख्या करते हो तब बृहद्वृत्तिकार को स्वीकृत पाठ को ही मूलसूत्रपाठ के तौर पर प्रायः हमने अपने संपादन में स्थान दिया है।
श्वेताम्बर आगमों के पाठसंपादन में इन दो बहुश्रुत मुनियोंने पाठपसंदगी के बारे में उपर्युक्त जिन सिद्धान्तों को स्वीकार किया है, उनमें से दो बातें उभर कर आती हैं ।
१. हस्तलिखित प्रतियाँ, चूर्णि और वृत्ति-इन तीनों में से जो प्राचीनतम मानी जाती है उस चूर्णि का पाठ पसंदगी के बारे में द्वितीय क्रमांक से उपयोग किया गया है । यानी कि 'प्राचीनपाठ' की ही स्थापना का लक्ष्य प्रधान नहीं है। किन्तु वृत्ति संमतपाठ को प्रथम से पसंद किया गया है (क्योंकि वह पठन पाठन में उपयोगी है) ।
२. प्रकरण, वाक्य या वाक्यार्थ को सुसंगत करने या परिपूर्ण करने के लिए यदि 'अत्यन्त जरूरी' लगे तो वहाँ चूर्णि का पाठ [ ] में जोड दिया है ।
इस तरह हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर यह पाठसंपादन करने के बावजूद भी, उनमें कुछ-कुछ स्थलों पर प्रथम क्रमांक से 'वृत्ति' का तथा द्वितीय क्रमांक से 'चूर्णि' का उपयोग किया गया है । यहाँ 'चूर्णिसंमत' प्राचीनतम पाठ प्राप्त होते हुए भी, वह प्रायः पादटिप्पण में ही निर्दिष्ट है । इसी प्रकार जैनागमों की भाषा में एकरूपता नहीं है इस तथ्य से ये दोनों संपादक अवगत होने के बाद भी उसमें एकरूपता और प्राचीनता के पुनः स्थापन के प्रति उदासीन रहे । ४. पाठपरंपरा के वंशवृक्ष से सूचित लक्ष्यांक :
सामान्यतया, आधुनिक पाठसमीक्षाशास्त्र का यह आग्रह होता है कि हस्तलिखित प्रतियों और सहायक सामग्रीरूप (टीका, वृत्ति इत्यादि) ग्रन्थों से प्राप्त प्राचीनतम और मूलग्रन्थकार को अभिमत पाठ की प्रतिष्ठा करना तथा अन्य पाठपरंपरा में सुरक्षित पाठान्तर, प्रक्षेपादि को 'समीक्षणीय सामग्री' के तौर पर वैज्ञानिक पद्धति से पादटीप में करना, उल्लिखित जिससे भविष्य के अध्येता को उन तमाम पाठान्तरादि की जानकारी एक ही पृष्ठ पर उपलब्ध हो सके । . जैनागमों के सन्दर्भ में तो 'मूल ग्रन्थकार का' (अर्थात् भगवान् महावीर का) स्वहस्तलेख तो कभी था ही नहीं, इस वजह से आधुनिक पाठसंपादकों का यह लक्ष्य रहना चाहिए कि वह उपलब्ध सामग्री में से प्राचीनतम पाठ को (ही) प्रतिष्ठित करें । इस सन्दर्भ में जैनागमों की पाठपरंपरा का वंशवृक्ष सोचें तो
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