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________________ १४४ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature इस तरह जैनागमों के पाठ में जो भाषाकीय रूपांतर होते रहे हैं और आज उपलब्ध होते पाठ में एकरूपता का जो अभाव प्रवर्तमान है, उसके स्थान पर मूल प्राचीनतम अर्धमागधी भाषा स्वरूप के प्रतिष्ठापन का प्रश्न आज ध्यानाकर्षक है । मुनि श्री पुण्यविजयजी और श्रीजम्बूविजयजी म. सा. द्वारा आगमों का पाठसम्पादन : प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के चतुर्विध स्तर : १. अनुसन्धान (Hueristics) २. संशोधन (Recension) ३. संस्करण (Emendation) और ४. उच्चतर समीक्षा (Higher Criticism) वाली पद्धति प्रोफेसर कत्रे ने (१९५४) पूर्वोक्त ग्रंथ में समझायी है । तथा भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना ने ई० स १९३३ में प्रकाशित 'महाभारत' की समीक्षित आवृत्ति में जो पद्धति अपनाई गई है उस आदर्श को सामने रखकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी म. साहब ने (१९६८ में) नंदिसूत्रं अनुयोग द्वारं च० का तथा मुनि श्री जम्बूविजयजी म० साहब ने (१९७७ में) आचारांगसूत्रम् इत्यादि का समीक्षित पाठसंपादन कार्य किया है । इन दो ग्रन्थों की प्रस्तावना देखते हुए इन दोनों महानुभावों की पाठसमीक्षा की सामग्री और पद्धति निम्नवत् दिखाई देती है । 'आचारांग की पाठपरंपरा जिसमें सुरक्षित रही है वे हैं-१. वर्तमान में प्राप्त ताडपत्रीय और कागज की हस्तप्रतें, २. आचारांग की सबसे प्राचीन व्याख्या 'चूर्णि' और ३. आचारांग की सबसे प्रथम शीलांकाचार्य की संस्कृत वृत्ति । इनके अलावा ४. पूर्व के प्रकाशित विविध संस्करण भी इस समग्र सामग्री से श्री जम्बूविजयजी म. साहब और पुण्यविजयजी म. सा. ने हस्तलिखित प्रतियों का ही मुख्यतया आधार लिया है । उपर्युक्त त्रिविध समग्री में से कालानुसार देखें तो 'चूर्णि' सबसे अधिक प्राचीन है तथा 'शीलाचार्य की संस्कृतवृत्ति' ११०० वर्षों पूर्व लिखी गई है । इसलिए उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों से तो वह प्राचीन है ही, किन्तु 'चूर्णि' तो 'वृत्ति' से भी अधिक प्राचीन है । ___ अब, हस्तलिखितप्रतों के अलावा जो चूणि या शीलाचार्य की वृत्ति है जिसे पाठसमीक्षाशास्त्र में 'सहायक सामग्री' (Testimonium) कहते हैं । उसमें से वृत्ति में प्राप्त पाठ को संपादकों ने अधिक महत्त्व दिया है । क्योंकि १. वर्तमान हस्तप्रतियों का पाठ वृत्ति की पाठपरंपरा के प्रायः समान होता है तथा २. आज प्राय: उसका पठन-पाठन में अधिक प्रचार होने के कारण, वत्ति के अध्याताओं के अनकलन हेत ३. 'वत्ति' में प्राप्त पाठ को प्राधान्य दिया है । मुनि श्री जम्बूविजयजी ने 'आचारांग' के संपादन में पाठपसंदगी के निम्नोक्त सिद्धान्तों का पालन किया है। क. हस्तलिखित प्रतियों में विविध पाठ प्राप्त हों तब कोई पाठ चूर्णि संमत हो और कोई पाठ वृत्ति संमत हो तो वृत्तिसंमत पाठ को प्रायः मूल में स्वीकार किया है । (और दूसरे पाठ को पादटिप्पण में दिया गया है ।) ख. फिर भी चूर्णिसंमत पाठ का भी अनेक स्थलों पर मूल में स्वीकार किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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