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जैनागमों के पाठसम्पादन में प्राचीन भाषाकीय स्वरूप का पुनःस्थापन
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शहर में नागार्जुनसूरि ने भी एक परिषद इकट्ठी करके आगम की वाचना के लिए चर्चा की थी। उसके बाद ई० स० ४५३-४६६ में, और वलभी में ही, देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में चौथा सम्मेलन बुलाया गया । उसमें मथुरा से प्राप्त 'माथुरी वाचना' के आधार पर जैन आगम को संकलित करके लिपिबद्ध किया गया । तथा इस समय जिन पाठों का समन्वय न हो सका उनको वायणान्तरे पुण (वाचनान्तरे पुनः) (दूसरी किसी वाचना में ऐसा पढ़ने को मिलता है ।) ऐसा कहकर नोट कर लिया गया या फिर, कुछ पाठान्तरों के लिए "नागार्जुनीयास्तु एवं वदन्ति ।" इत्यादि रूप में उल्लेख किया गया । इसी समय 'दृष्टिवाद' नामक ग्रन्थ को कहीं से भी प्राप्त न होने के कारण उच्छिन्न घोषित कर दिया गया ।
वेद साहित्य में शब्द का प्राधान्य होने के कारण, कालान्तर में वेदमंत्रों के अर्थ के बारे में अधिक विप्रतिपत्तियाँ खड़ी हुईं किन्तु उनके शब्द तो सस्वर यथावत् अद्यावधि सुरक्षित हैं। जब कि जैनागमों में महावीर की वाणी के शब्द का नहीं, किन्तु अर्थ का प्राधान्य स्वीकृत है। इसलिए भाषाकीय दृष्टि से उसके शब्दात्मक स्वरूप में परिवर्तन होते रहे हैं । जैसे कि, भगवान महावीर ने मगध और उसके आसपास के प्रदेशों में जो धर्मोपदेश किया होगा तो वह तात्कालिक अर्धमागधी भाषा में होगा । इस तरह अनुमान से सिद्ध होता है कि जैनागमों का भाषाकीय स्वरूप अर्धमागधी भाषा में निबद्ध था। बाद में उन आगमों का माथुरी वाचना में संक्रमण होने के कारण, वह शौरसेनी भाषा में उपनिबद्ध हुआ होगा । और कालान्तर में तीसरे स्तर पर वह महाराष्ट्री प्राकृत में परिवर्तित हुआ है । (आज श्वेताम्बरों के आगम 'जैन महाराष्ट्री प्राकृत' में हैं । तो दिगम्बरों के मत से जैनागम शौरसेनी प्राकृत में उपनिबद्ध हैं । इस तरह जैनागमों की दो प्रमुख वाचनाएँ प्रवर्तमान है ।) । अब जैनागमों की भाषा के सन्दर्भ में मुनि श्री पुण्यविजयजी म. सा. के शब्दों को देखेंगे: ... दोनों अरिहंतों ने (बुद्ध और महावीर ने) अपने उपदेश लोकभाषा में ग्रथित हो ऐसा आगद रखा था । इसलिए भगवान महावीर का उपदेश गणधरों ने उस समय की प्राकृत भाषा में ग्रथित किया । उस भाषा का नाम शास्त्रों में अर्धमागधी दिया गया है। बाद के वैयाकरणों ने मागधी और अर्धमागधी भाषा के जो लक्षण बनायें है, वह लक्षण हमारे पास विद्यमान आगमों में क्वचित् ही देखने को मिलते हैं । इस कारण प्राकृत भाषा की सामान्य प्रकृति के अनुसार यह भाषा सदा परिवर्तित होती रही होगी ऐसा मानने का कारण है, और जिस कारण से शास्त्रों की भाषा संस्कृत नहीं किन्तु प्राकृत रखी गई थी । यानि कि लोकभाषा स्वीकार हुई थी उस कारण से भी लोक भाषा जैसे जैसे बदलती रही वैसे-वैसे वह शास्त्रों की भाषा बदलनी चाहिए यह अनिवार्य था ..."
"वेताम्बरों के आगमों की भाषा प्राचीन काल में अर्धमागधी थी ऐसा स्वयं आगमों के ही निर्देश से निश्चित होता है। किन्तु आज तो वैयाकरण जिसे महाराष्ट्री प्राकृत के नाम से जानते हैं उस भाषा के नजदीक की वह प्राकृत है। इसलिए आधुनिक विद्वान उसे 'जैन महाराष्ट्री' नाम दें। हैं । उस भाषा की समग्र भाव से एकरूपता, पूर्वोक्त शौरसेनी की तरह, आगम ग्रन्थों में नहीं मिलती और भाषाभेद के स्तर स्पष्ट रूप से तज्ज्ञों को दिखाई देते हैं ।"६
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