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________________ १४२ Contribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature Katre S. M. Introduction to Indian Textual Criticism, Deccan College, Pune, 1954. तदुपरान्त, प्रस्तुत लेख के लेखक ने भी 'संस्कृत पाण्डुलिपिओ अने समीक्षित पाठसम्पादन-विज्ञान' (प्रका० सरस्वती पुस्तक भंडार, अहमदाबाद, १९९४) पुस्तक से इस दिशा में एक प्रयास किया है। - श्री करेंजी ने उपर्युक्त पुस्तक में निरूपित पद्धति से लिखित दस्तावेजों से (अर्थात् हस्तलिखित प्रतों से) पाठसम्पादन (Text editing) का कार्य करने के अलावा, पाठसमीक्षा के क्षेत्र में कभी किसी कृति का कुछ अंश हस्तप्रतों से लुप्त हुआ हो तो उस लुप्तांश के लिए अन्य 'सहायक सामग्री' से लुप्त पाठांश का पुनर्गठन (Reconstruction) भी करना पड़ता है। (उदाहरण के लिए देखिए The Panchatantra Reconstructed; ed. by Franklin Edgerton; Vol. I & II, American Oriental Society, New Haven, Connecticut, U.S.A. 1924 (भाग-२ की प्रस्तावना) अथवा कभी प्राचीनतमपाठ का नया स्थित्यन्तर उत्पन्न हुआ हो तो ऐसे पाठ के पुनर्वसन का कार्य भी हाथ में लेना पड़ता है । इस तरह 'पाठसमीक्षा' के कार्यक्षेत्र में त्रिविध आयाम दिखाई देते हैं । प्रस्तुत लेख में जैनागमों की पाठसमीक्षा के सन्दर्भ में जिस प्रकार की समस्या की चर्चा की गई है, वह केवल हस्तप्रतों से पाठसम्पादन करने की समस्या नहीं है, बल्कि जैनागमों के पाठ में कालान्तर में जो नया स्थित्यंतर पैदा हुआ है, उसके पुनर्वसन (पुनः स्थापन) की समस्या मुख्य है, जिसकी चर्चा हम यहाँ करेंगे । २. जैनागमों की विविध वाचनाएँ और भाषाकीय रूपान्तर ___ ब्राह्मण संस्कृति के वेदों का, तथा श्रमणसंस्कृति के जैनागमों और बौद्ध त्रिपिटकों के पाठ ऐसे हैं कि जिनमें मूल ग्रन्थकार का स्वहस्तलेख (Autograph) कभी था ही नहीं (दोनों संस्कृतियों के अनुयायियों ने अपने अपने ज्ञानराशि को केवल श्रुति परंपरा से सदियों तक सुरक्षित रखने का प्रयास किया है ।' श्रमण संस्कृति के साधू समय समय पर मिलते रहे हैं और अपने श्रुतज्ञान को परस्पर जाँच पड़ताल कर उसे व्यवस्थित करते रहे हैं । जैसे कि बौद्धत्रिपिटकों के पाठ का सम्पादन करने के लिए तीन 'संगीति'याँ की गयी थीं । ऐसा निर्देश बौद्ध ग्रंथों से प्राप्त होता है । प्रथम संगीति राजगृह में, दूसरी वैशाली में और तीसरी सम्राट अशोक (ई० स० पूर्व २५०) के समय में, यानी कि बुद्धनिर्माण के २३६ वर्ष के बाद पाटलिपुत्र में हुई थी । इस तीसरी संगीति में बौद्धआगमों को लिपिबद्ध किया गया था । इसी तरह से महावीर की वाणी को प्रथम स्तर पर गौतमादि शिष्यों ने मौखिक परंपरा से ही सुरक्षित रखा । बाद में दूसरे स्तर पर अर्थात् भगवान् महावीर के निर्वाण के १६० वर्ष बाद (यानी कि. ई० स० पूर्व ३६७ में) चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में जो अकाल हुआ था उसके बाद स्थूलिभद्र ने पाटलिपुत्र में देशभर के जैन श्रमणों का संमेलन बुलाया था, और वहाँ सबने इकट्ठे होकर श्रुतज्ञान को व्यवस्थित किया था । ऐसा दूसरा संमेलन ई० स० ३००-३१३ में आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा (शूरसेन) में बुलाया गया था । ठीक उसी समय गुजरात के वलभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001982
Book TitleContribution of Jainas to Sanskrit and Prakrit Literature
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantkumar Bhatt, Jitendra B Shah, Dinanath Sharma
PublisherKasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages352
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationBook_English & Articles
File Size22 MB
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