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एक सत्यनिष्ठ मित्र डॉ० के० आर० चन्द्र
"प्राकृत और जैन विद्या" के क्षेत्र में कार्य करनेवाले अल्प संख्यक विद्वानों में डॉ० के० आर० चन्द्रा का नाम सुविख्यात है । उनकी प्राकृत भाषा और साहित्य की सूझ-बूझ और जीवनभर नि
निष्ठापूर्वक विद्याकार्य में रत रहने के कारण इन्हें जैन विद्या के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ था ।
डॉ० चंद्रा कर्मयोगी थे । साहित्य मंदिर के पुजारी थे । प्रतिपल अपनी साहित्य-साधना में संलग्न रहते थे, कहीं भी रहें, कहीं भी जायें उनकी शोध-वृत्ति और जिज्ञासा प्रतिपल सजग रहती थी। श्री चंद्राजी की एक विशेषता यह थी कि वे नई पीढी के युवा लेखकों को प्रोत्साहित करते थे । अपने संपर्क में आनेवाले शिक्षितजनों बुद्धिजीवियों के लिए भी प्रेरणा और प्रोत्साहन के अक्षय स्रोत थे । वे एक व्यक्ति नहीं थे वरन् साहित्यिक गतिविधियों के एक विशाल केन्द्र अथवा संस्था का रूप धारण कर चुके थे । उनकी ज्ञनोपासना आत्मसाधना और दूसरों को दी जानेवाली प्रेरणा मानो त्रिवेणी के रूप में प्रवाहित थी और इस दृष्टि से पवित्र एवं आदरणीय भी थे ।
जो सत्य लगा उसे कहने में उन्हें कहीं संकोच अथवा भय नहीं था । खुले रूप में उसे कहना और लिखना वे अपना धर्म मानते थे । इसमें किसी को प्रिय-अप्रिय लगे तो इसकी परवाह नहीं थी । सात्त्विकता और सहजता इनके व्यक्तित्व के दो महत्त्वपूर्ण गुण थे। कहीं कोई दिखावा, प्रदर्शन और बड़प्पन नहीं था । स्वभाव से सरल, मिलनसार और नम्र । एक सामान्य मनुष्य की भाँति सहज और स्वाभाविक रूप में छोटे-बड़े समारोहों से लेकर दैनिक कार्यक्रम में उपस्थित रहते थे। श्री चन्द्रासाहब का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यधिक गरिमामय था । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और वे विचारों की दृष्टि से हिमालय से भी अधिक उन्नत थे और सागर से भी अधिक गंभीर थे । वे चिंतक थे, संशोधक थे ।
डॉ० चन्द्राजी की सफलता में उनके निर्मल जीवन एवं सौम्य व्यक्तित्व का पूरा सहयोग था । उनका कभी किसी से कोई विरोध नहीं होता था । विषम परिस्थिति में भी वे सहज और प्रसन्नचित्त, रहते थे । ऐसे सौम्य सरस्वतीपुत्र को वंदन कर कौन अपने को गौरवान्वित न समझेगा ।
भगवतीसिंह पूर्वरीडर, अंग्रेजी विभाग
भाषासाहित्यभवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदाबाद
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