SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य T इन सब भाषाओं में ग्रन्थ रचना की। कहा जाता है कि उन्होंने छोटे-बड़े लगभग ५०० ग्रन्थ लिखे । यद्यपि उनकी सभी कृतियाँ तो उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी जो उपलब्ध हैं, उनकी संख्या १०८ मानी जाती है। उपा० यशोविजय भी हरिभद्र के समान विभिन्न भारतीय धर्म, दर्शन एवं योग-साधना की परम्पराओं के प्रबल पोषक थे। उनका अध्ययन व्यापक एवं वस्तुस्पर्शी था । इसलिए उनकी रचना - शक्ति भी अद्भुत एवं वेगवती थी। साहित्य की अनेक विधाओं पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाई। उन्होंने लोककल्याण व आत्मकल्याण के लिए अनेक विषयों पर ग्रन्थ रचना कर ज्ञान के क्षेत्र का विकास किया और अपने पाण्डित्य का अद्भुत परिचय दिया । १२वीं शती के गंगेश उपाध्याय द्वारा प्रवर्तित नव्यन्याय की शैली के अनुरूप अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया । तार्किक, कवि व नैयायिक होने के साथ-साथ वे महान् योगी भी थे। उन्होंने जहाँ प्रमाण, प्रमेय, नय, तर्क, आचार, मुक्ति, योग, भक्ति आदि अनेक विषयों पर ग्रन्थरचना की, वहाँ काव्य, व्याकरण आदि को भी अछूता नहीं छोड़ा। उनकी रचनाएँ गद्य व पद्य दोनों में समान रूप से मिलती हैं। शैली की दृष्टि से उनके ग्रन्थ व्याख्या एवं वर्णनपरक अधिक मिलते हैं । इनकी कृतियों में खंडन-मंडन और समन्वय, तीनों का समावेश है। उनकी भाषा अलंकृत और प्रभावपूर्ण है । महाकाव्य दार्शनिक व नैयायिक चिंतन से भरपूर हैं तथा उनमें ज्योतिषशास्त्र, शकुनशास्त्र, व आयुर्वेद के कुछ प्रसंग भी हैं । पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव उपाध्याय यशोविजय जी पर पूर्ववर्ती कवियों का पर्याप्त प्रभाव है। उनके ग्रन्थों में प्राचीन कवियों, नैयायिकों तथा दार्शनिकों आदि के मतों का उल्लेख इसका द्योतक है। महाकवि कालिदास, हर्ष और पण्डितराज जगन्नाथ के पदों की छाया भी इनके महाकाव्यों में मिलती है। धर्मभूषण की "न्यायदीपिका " के स्थलों का आनुपूर्वी के साथ प्रयोग भी "जैनतर्कभाषा" में हुआ है। उनके अध्यात्मविषयक ग्रन्थों में अपने मत की पुष्टि हेतु जैन आगमों, हरिभद्रसूरि कृत योगग्रन्थों, वैदिकग्रन्थों, विशेषकर गीता एवं पातञ्जलयोगसूत्र तथा बौद्धग्रन्थों के बहुशः उदाहरण प्राप्त होते हैं । I संक्षेप में उपा० यशोविजयजी अत्यन्त प्रतिष्ठित, तथा सर्वतोमुखी प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्ति थे । इनकी विद्वत्ता एवम् पाण्डित्य को देखते हुए किसी विद्वान् ने इन्हें वर्तमान काल के "महावीर" के रूप में स्मरण किया है। आज भी श्रीसंघ में किसी भी बात पर विवाद उत्पन्न होने पर उपाध्याय जी द्वारा रचित शास्त्र अथवा टीका के वाक्य को अन्तिम प्रमाण माना जाता है। इसीलिए समकालीन मुनिवरों ने इनको * श्रुतकेवली" इस विशेषण से संबोधित किया है। जैन ग्रन्थावली के अनुसार उपा० यशोविजय द्वारा रचित ग्रन्थों की नामावली' इस प्रकार है। - १. २. १. २. ३. ४. ५. ६. अध्यात्मोपनिषद् अध्यात्ममतदलन लघुः पुराष्टाव (?) तिश्चरित्रं, स्थातुं च दत्तेऽनुजमप्यमुं यत् । सम्पश्यति भ्रातृगृहं न वक्र-क्रूरग्रहः किं मम चक्रदम्भात् ।। - आर्षभीयचरित्र महाकाव्यम् ३/८५ वही, ४१--१७ वही, ३/१६ स्यादवादरहस्य, पृ० १६ यशोदोहन, पृ० ६-१२. तर्कप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन प्रोद्बोधितादिममुनिश्रुतकेवलित्वाः । चक्रुर्यशोविजयवाचकराजिमुख्या ग्रन्थेऽत्रमय्युपकृतिं परिशोधनाद्यैः ।। - धर्मसंग्रह, प्रशस्ति पद्य ११ जैनग्रन्थावली, पृ० १०३-१०८ 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy