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________________ पातञ्जल एवं जैनयोग-साधना-पद्धति तथा सम्बन्धित साहित्य जिनचन्द्र योगरत्नमाला नागार्जुन योगमार्ग सोमदेव योगरत्नाकर जयकीर्ति योगलक्षणद्वात्रिंशिका परमानन्द योगविवरण यादवसूरि योगसंग्रहसार योगसंग्रहसारप्रक्रिया नन्दीगुरु अथवा अध्यात्मपद्धति योगसार गुरुदास योगांग शान्तरस योगामृत वीरसेन देव जिनरत्नकोश' में 'अध्यात्म' शीर्षक वाली विविध कृतियों का उल्लेख है, जिनमें से किसी के भी कर्ता का नाम वहाँ नहीं दिया गया । अतः ये सब अज्ञातकर्तृक कही जा सकती हैं। इनके नाम इस प्रकार हैंअध्यात्मभेद, अध्यात्मकलिका, अध्यात्मपरीक्षा, अध्यात्मप्रबोध, अध्यात्मबिन्दु, द्वात्रिंशिका, अध्यात्मलिंग और अध्यात्मसारोद्धार। उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में योगविषयक विपुल साहित्य की रचना हुई है। परन्तु खेद का विषय है कि उक्त सब सामग्री आज उपलब्ध नहीं है। अधिकांश नामशेष ही रह गयी है। आगमयुग से लेकर वर्तमानयुग तक प्राचीन, मध्य एवं अर्वाचीन-तीनों कालों में जैनयोग-साहित्य पर हुई ग्रन्थ रचनाओं में हरिभद्रसूरि, शुभचन्द्राचार्य, हेमचन्द्रसूरि एवं उपा० यशोविजय कृत योगग्रन्थ जैन समाज में ही नहीं, जैनेतर समाज में भी प्रसिद्ध हैं। उनकी प्रसिद्धि, उनमें पाई जाने वाली अभिनव विचारधारा तथा अन्य विशेषताओं के कारण ही प्रस्तुत प्रबन्ध में इन्हें अध्ययन का विषय बनाया गया है। उक्त चार जैनाचार्यों को प्रस्तुत प्रबन्ध का आधार बनाने का एक अन्य कारण यह भी था कि वे अपने-अपने युग के विशिष्ट प्रतिनिधि थे। जहाँ तक हरिभद्र का सम्बन्ध है वे एक ऐसे महान् जैनाचार्य हए हैं जिन्हें ब्राह्मण (वैदिक) और जैनपरम्परा में समन्वयात्मक दृष्टिकोण को प्रमुखता देने का गौरव प्राप्त हुआ है। वे स्वयं भी ब्राह्मणपरम्परा के एक दिग्गज विद्वान् थे, किन्तु बाद में उन्होंने स्वेच्छा से जैन धर्म अंगीकार कर लिया था। जैनयोग-साधना को विविध परिप्रेक्ष्यों में और विविध रूपों में निरूपित करने एवं पातञ्जलयोग-परम्परा के साथ समन्वयात्मक दृष्टि से उपस्थापित करने में वे पूर्णतः सफल रहे हैं। इसी तरह उपा० यशोविजयकृत ग्रन्थों को जैनदर्शन व न्याय के विकास की पराकाष्ठा कहा जाए तो अनुचित न होगा। जहाँ उन्होंने वैदिकपरम्परा के नव्य न्याय की शैली को अंगीकार कर, जैनदर्शन का सदढ़ तर्क-प्रासाद खड़ा किया, वहाँ हरिभद्रसूरि द्वारा प्रवर्तित चिन्तन-परम्परा को आगे बढ़ाते हुए जैनयोग-साधना का व्यापक व विस्तृत निरूपण भी किया, जो मौलिक और आगमिक परम्परा से सम्बद्ध होने के साथ-साथ तुलनात्मक और समन्वयात्मक दृष्टिकोण की दृष्टि से सर्वथा नवीन एवं उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करता है। १. जिनरत्नकोश, भाग १, पृ०५-६; जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४ पृ० २६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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