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________________ सप्तम अध्याय पातञ्जलयोग एवं जैनयोग में परस्पर साम्य-वैषम्य एवं वैशिष्ट्य भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य है मानव जीवन को अभाव एवं सांसारिक कष्टों से मुक्ति दिलाकर शाश्वत एवं चिरन्तन आनन्द की प्राप्ति कराना। सभ्यता के आदिकाल से ही मानव ने सासारिक विषय वासनाओं से अपने आपको आबद्ध पाते हुए भी उससे निकलने का प्रयास जारी रखा है। प्राचीन कालीन ऋषियों एवं आधुनिक चिन्तकों ने समय-समय पर विविध उपायों का अन्वेषण कर स्वानुभव द्वारा तत्त्वसाक्षात्कार कराने वाली व्यावहारिक पद्धतियों को धरातल पर उतारने का सफल प्रयास किया है। उनके द्वारा आत्मविकास की पूर्णता और उससे प्राप्त होने वाले प्रज्ञा-प्रकर्षजन्य पूर्णबोध की प्राप्ति हेतु अन्वेषित उपायों में 'योग' एक विशिष्ट एवं अन्यतम उपाय है। 'योग' आर्य जाति की सबसे श्रेष्ठ एवं अनुपम आध्यात्मिक निधि है। योग-साधना के मार्ग अनन्त हैं। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, राजयोग, हठयोग, ध्यानयं सोया यानयोग जपयोग, मन्त्रयोग, तपयोग, लययोग आदि योग की अनेक शाखाएँ हैं । वस्तुतः ये सभी शाखाएँ एक दूसरे की पूरक हैं। विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्रत्येक योग में भक्ति, ज्ञान, कर्म, ध्यान आदि साधनों का न्यूनाधिक रूप में उपयोग अवश्य होता है। परन्तु साधक अज्ञानान्धकार से वशीभूत होने के कारण इनके गूढ़ रहस्यों को समझ नहीं पाता । यही कारण है कि किसी एक मार्ग का अनुसरण करने वाले साधक अपने आपको दूसरों से पृथक समझने लगते हैं। यथा - भक्तिमार्गी लोगों को हठयोगियों से अथवा ज्ञानमार्गी लोगों का कर्मयोगियों से अथवा कर्ममार्गी लोगों का ज्ञानयोगियों से विरोध स्पष्ट दिखाई देता है, जबकि ज्ञान, भक्ति, कर्म, जप, तप, ध्यान, ज्ञान आदि की समष्टि ही सम्पूर्ण योग है। प्रत्येक की स्थितिभेद के कारण ही इनके साधना-मार्ग में अन्तर दिखाई पड़ता है। भारतीय संस्कृति तीन प्रमुख धाराओं में प्रवाहित रही है - वैदिक, बौद्ध एवं जैन। इन सबकी चिन्तन पद्धति एवं मौलिक विचारधारा में भिन्नता होने से इनकी मोक्ष-प्रापक साधना-पद्धतियों में जो पार्थक्य दिखाई देता है उनकी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए योग के साथ वैदिक, बौद्ध, जैन तथा अन्य सम्प्रदायों का नाम जोड़ा गया है। परिणामस्वरूप वैदिकयोग, बौद्धयोग अथवा जैनयोग आदि नाम प्रचलित होने लगे। यथार्थ में योग का किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा जाति विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है। 'योग' एक व्यापक शब्द है जिसमें सभी साधना-पद्धतियाँ समाहित हैं। योग-परम्परा का प्रारम्भ कब, कहाँ, और किसके द्वारा हआ? इसके सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं है। योग के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करने पर इतना ही कहा जा सकता है कि आत्मविकास हेतु आध्यात्मिक साधना के रूप में 'योग' का प्रचलन प्रागैतिहासिक काल से चला आ रहा है। सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त ध्यानस्थ योगी का चित्र उक्त तथ्य का पोषक प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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