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________________ सिद्धि-विमर्श 253 आ. जैनयोग-मत पातञ्जलयोग के समान जैन-परम्परा में भी यह मान्यता रही है कि तप, ध्यान और योगसाधना से ऋद्धि एवं सिद्धियों की प्राप्ति होती है। आ० हरिभद्र, शुभचन्द्र, हेमचन्द्र तथा उपा० यशोविजय ने भी उक्त मान्यतानुसार अपनी सहमति व्यक्त की है। जैन-परम्परा में पातञ्जलयोग के 'विभूति' शब्द को 'कर्मसम्पदा' नाम से भी अभिहित किया है, यद्यपि वहाँ विभूति शब्द के स्थान पर ऋद्धि अथवा लब्धि शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है। योगसिद्धियाँ साधक की मध्यवर्तिनी अवस्थाएँ हैं, इसी दृष्टि से आचार्य जिनदास ने मोक्ष को 'परम अवस्था' और यौगिक विभूति आदि को 'अपरम अवस्था' कहा है। जिसप्रकार पातञ्जलयोग में जन्म, औषधि, मन्त्र, जप, तप आदि से जनित अनेक प्रकार की सिद्धियों का उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार जैन-परम्परा में भी तीन प्रकार की ऋद्धियाँ मानी गई हैं - १. देव, २. राज्य और ३. गणि (आचार्य)। इनमें 'देवऋद्धि' जन्म से प्राप्त होती है और 'राज्यऋद्धि' विविध उपायों से तथा 'गणिऋद्धि' तप से प्राप्त होती है।" जैन-परम्परा के सिद्धान्त ग्रन्थों में ऋद्धियों-सिद्धियों का विस्तत विवेचन उपलब्ध है, इसलिए आo हरिभद्र, आ० शुभचन्द्र, आ० हेमचन्द्र तथा उपा० यशोविजय आदि मनीषियों ने अपने योग ग्रन्थों में ऋद्धियों के स्वरूप एवं भेदोपभेद आदि का व्यवस्थित, विस्तृत एवं सर्वांगीण विवरण प्रस्तुत नहीं किया। चूँकि ऋद्धि-सिद्धि आदि का साधना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है, इसलिए इनका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। जैन-परम्परा में वर्णित सिद्धियों का वर्णन इस प्रकार है - जैन आगम व आगमोत्तर ग्रन्थों में विभिन्न प्रकारों की ऋद्धियों (लब्धियों) की चर्चा की गई है। भगवती सूत्र में जहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि दस प्रकार की लब्धियों का उल्लेख हुआ है वहाँ तिलोयपण्णत्ती,११ श्रुतसागरीय तत्त्वार्थवृत्ति तथा धवलाटीका में ६४, आवश्यकनियुक्ति में २४, षट्खण्डागम"५ में ४४, विद्यानुशासन में ४८, मंत्रराजरहस्य' में ५०, प्रवचनसारोद्धार एवं विशेषावश्यकभाष्य में २८ ऋद्धियों का वर्णन मिलता है। श्रुतसागरीय तत्त्वार्थवृत्ति के अनुसार ऋद्धियों का वर्णन इस प्रकार है - गणधर देव आठ ऋद्धियों से युक्त होते हैं - बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षिति (क्षेत्र)। ४. योगबिन्द २६याँ प्रकरण और.६ठा अध्याय.. ७/२०/२३-२६ १. तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६/६/२७; आदिपुराण, २/४७; ३४/१२४, ३६/१५२-५५, हरिवंशपुराण, ५६/१२१; उपासकाध्ययन,३६/७१७ योगशतक, ८३.८४; योगबिन्दु, २३३-२३६ ३. ज्ञानार्णव, ३५/२६, ३७/१२ तथा २६यौँ प्रकरण योगशास्त्र, १/८,६:५/३६-४१:६/१५-१६; ५वाँ और.६ठा अध्याय द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, ६/१४ एवं १८/२४ पर स्वो० वृ०: अध्यात्मसार, ७/२०/२३-२६: ज्ञानसार, सर्वसमृद्धयष्टक। उत्तराध्ययनसूत्र, १/४७ दशवैकालिकसूत्र. ६/२/२ पर जिनदासचूर्णि एवं हरिभद्रटीका स्थानांगसूत्र. ३/४/५०१ ६. स्थानांगसूत्र, २/२; औपपातिकसूत्र, २४प्रज्ञापना, ६/१४४ १०. भगवतीसूत्र, ८/२ ११. तिलोयपण्णत्ति, १/४/१०६७-६१ १२. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति, ३/३६ १३. धवला. पुस्तक १४, पृ०५८ आवश्यकनियुक्ति, ६६-७० १५. षट्खंडागम, ४/१/६ १६. मंत्रराजरहस्य, १-७ १७. प्रवचनसारोद्धार, १४६२-१५०८ १८. विशेषावश्यकभाष्य, ७७७-८०७ १६. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीयवृत्ति, ३/३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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