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________________ 240 (४) समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति - साधक जब शुक्लध्यान के चौथे तथा अंतिमचरण में पहुँचता है तब ध्यान की अवशिष्ट सूक्ष्मक्रिया का भी निरोध हो जाता है और आत्मप्रदेश मन, वचन, काय - तीनों योगों के निरोध से मेरु पर्वत के समान निश्चल, सर्वथा निष्प्रकम्प हो जाते हैं। शैलेशी अवस्था को प्राप्त केवली की यह स्थिति 'समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाती' ध्यान कहलाती है।' आ० हेमचन्द्र ने इसे 'उत्सन्नक्रियाप्रतिपाति' अथवा 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नाम से अभिहित किया है। इस ध्यान के प्रभाव से शेष चार अघातीकर्मों का भी क्षय हो जाता है। आहेमचन्द्र के अनुसार अ, इ, उ, ऋ, लृ • इन पांच ह्रस्व स्वरों को बोलने में जितना समय लगता है, उतने समय तक में शैलेशी अवस्था अर्थात् मेरु पर्वत के समान निश्चल दशा प्राप्त करके एक साथ साधक वेदनीयादि कर्मों का मूल से क्षय कर देता है। इस ध्यान में केवली 'अयोगकेवली गुणस्थान' के उपान्त्य (अन्त समय के पहले समय में ७२ कर्मप्रकृतियों तथा इसी गुणस्थान के अन्त समय की अवशिष्ट १३ कर्मप्रकृतियों को भी नष्ट कर देते हैं। क्योंकि उसके आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है, इसलिए इनका आगे गमन नहीं होता। केवल ज्ञान और दर्शन से युक्त सिद्धात्मा सर्वकर्मों से मुक्त होकर सादि-अनन्त - अनुपम, अव्याबाध और स्वाभाविक पैदा होने वाले आत्मिक सुख को प्राप्त कर उसी में मग्न रहती है। उपा० यशोविजय के अनुसार शुक्लध्यानी की पहचान अवध ( अव्यथ), असम्मोह (सूक्ष्म पदार्थ विषयक मूढ़ता का अभाव ) विवेक और व्युत्सर्ग (शरीर और उपाधि में अनासक्त भाव ) - इन चार बाह्य चिह्नों से होती है। क्षान्ति, मृदुता, आर्जव और मुक्ति, ये चार शुक्लध्यान के आलम्बन हैं। जिनका शरीर-संहनन वज्र के समान सुदृढ़ होता है (वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले) तथा जो पूर्व श्रुत का ज्ञाता होता है, वही शुक्लध्यान का अधिकारी होता है। इनसे रहित अल्पसत्त्व वाले साधक के चित्त में किसी भी तरह शुक्लध्यान की स्थिरता प्राप्त नहीं होती। प्रथम दो शुक्लध्यान छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानियों को होते हैं, क्योंकि उनमें श्रुतज्ञानपूर्वक पदार्थों का अवलम्बन होता है। शेष दो शुक्लध्यान कषायों से रहित काययोग की स्थिरता वाले केवलज्ञानी को होते हैं।" योगी की दृष्टि से प्रथम शुक्लध्यान एक योग या तीन योग वाले मुनियों को होता है। दूसरा एक योग वाले मुनि को ३, तीसरा सयोगी केवली" को तथा चौथा अयोगी केवली" को ही होता है । शुक्लध्यान के प्रथम दो भेदों में शुक्ल लेश्या, तीसरे में परमशुक्ल लेश्या मानी गई है तथा चौथे को लेश्यातीत कहा गया है। १६ १. अध्यात्मसार, ५/१६/७६ योगशास्त्र, ११ / ६ २. ३. ४. ५. ६. वही, ११ / ५६ वही, ११/५७ ज्ञानार्णव, ३६/४७-४६ ज्ञानार्णव, ३६/५५: योगशास्त्र, ११ / ५६ ७. योगशास्त्र, ११ / ६१ তা ८. अध्यात्मसार, ५/१६/८४ ξ. वही, ५/१६ / ७३ १०. ज्ञानार्णव, ३८ / ६, योगशास्त्र, ११ / २ ११. योगशास्त्र, ११/११ १२. ज्ञानार्णव, ३६/१८: अध्यात्मसार, ५/१६/७६ १३. ज्ञानार्णव ३६ / २२ १४. वही, ३६/४६ १५. योगशास्त्र, ११ / १० पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन १६. अध्यात्मसार, ५/१६/८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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