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आध्यात्मिक विकासक्रम
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योगी के समस्त घातिकर्म क्षणभर में भस्म हो जाते हैं और योगी आत्मा की विशुद्ध एवं आत्यन्तिक उत्कृष्ट स्थिति अर्थात केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। उसे समस्त लोक और अलोक को यथावस्थित रूप में जानने और देखने की सामर्थ्य तथा अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि आत्मा के स्वाभाविक गुणों की प्राप्ति होती है। ___ध्यान के उक्त दोनों प्रकारों में से प्रथम ध्यान का अभ्यास दृढ़ हो जाने के पश्चात ही द्वितीय अभेद प्रधान ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है।
(३) सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती
द्वितीय ‘एकत्व' वितर्क शुक्लध्यान के प्रभाव से अरिहन्त अवस्था प्राप्त हो जाने पर जब केवली की आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाती है तब वह तृतीय शुक्लध्यान का अधिकारी बनता है। इस अवस्था में आयुकर्म की स्थिति अन्य नामादि अघातिया कर्मों से अधिक होने पर उन्हें सम अवस्था में लाने के लिए केवली को समुदघात क्रिया करनी पड़ती है। 'समुदघात' का अर्थ है-जिस क्रिया से एक ही बार में सम्यक् प्रकार से प्रादुर्भाव हो, दूसरी बार न हो, इसप्रकार प्रबलता से घात करना, आत्मप्रदेश को शरीर से बाहर निकालना। यह समुद्घात क्रिया आठ समय में होती है। प्रथम तीन समय में आत्मा के प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर क्रमशः दण्डाकार, कपाटाकार एवं प्रस्ताकार में फैला दिया जाता है। चौथे समय में बीच के खाली भागों को आत्मप्रदेशों से पूर्ण करके उनसे सम्पूर्ण लोक को व्याप्त किया जाता है। पांचवें से सातवें समय में आत्मा के लोकव्यापी प्रदेशों को संहरण-क्रिया द्वारा सिकोड़कर पुनः प्रस्ताकार, कपाटाकार एवं दण्डाकार बनाया जाता है और आठवें समय में दण्डाकार को समेट कर आत्मप्रदेश को पूर्ववत् अपने मूलशरीर में ही स्थित कर लिया जाता है। इस प्रकार इस क्रिया से लोकपूरणसमुद्घात में उनके चारों घातीकर्मों की स्थिति समान हो जाती है।
वेदनीय आदि कर्मों को भोगने के लिए की जाने वाली यह समुदघात क्रिया पातञ्जलयोगसत्र में वर्णित बहकायनिर्माणक्रिया के समकक्ष प्रतीत होती है। तत्त्वसाक्षात्कर्ता योगी सोपक्रमकर्म को शीघ्र भोगने के लिए उक्त क्रिया करता है।"
समुदघात की क्रिया के पश्चात् अचिन्तनीय शक्ति से युक्त वह योगी बादर काययोग का अवलम्बन लेकर बादर वचनयोग एवं मनोयोग को शीघ्र ही सूक्ष्म कर लेता है, फिर सूक्ष्म काययोग से बादंर काययोग को रोकता है। तदनन्तर सूक्ष्म काययोग से सूक्ष्म वचनयोग और सूक्ष्म मनोयोग का भी निरोध कर लेता है। तत्पश्चात् वह सूक्ष्म काययोग से 'सूक्ष्मक्रिया-निवृत्ति' नामक तृतीय ध्यान का अभ्यास करता है, इसी का दूसरा नाम समुच्छिन्नक्रिया अथवा सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुक्लध्यान है। इस अवस्था में केवल श्वासोच्छवास आदि की सूक्ष्मक्रिया शेष रहती है। सूक्ष्मक्रिया निरुद्ध होकर भी स्थूल नहीं होती। इस ध्यानावस्था को प्राप्त हुआ योगी अन्य ध्यानों में नहीं लौटता, वह अन्तिम समय में सूक्ष्मक्रिया का भी त्याग कर निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।
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ॐ
ज्ञानार्णव. ३६/२४-२७: योगशास्त्र, ११/१६-४४ ज्ञानार्णव. ३६/१६(४); योगशास्त्र. ११/१७ ज्ञानार्णव, ३६/३६ ज्ञानार्णव, ३६/३८: योगशास्त्र, ११/५० योगशास्त्र, स्वो० वृ० ११/५० ज्ञानार्णव. ३६/३६-४२: योगशास्त्र, ११/५१-५२ व्यासभाष्य, पृ० ३८६, ४७२. ४७३ ज्ञानार्णव, ३६/४३-४६; योगशास्त्र, ११/५३-५५ योगशास्त्र, ११/८; अध्यात्मसार, ५/१६/७८
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