________________
आध्यात्मिक विकासक्रम
२. रौद्रध्यान
रौद्र अर्थात् क्रूर और कठोर वृत्ति वाले चित्त अथवा जीव का ध्यान 'रौद्रध्यान' है।' हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए जो क्रूरतापूर्ण चिन्तन किया जाता है वह 'रौद्रध्यान' है। चूंकि क्रूरता और कठोरता का मूल कारण हिंसा, असत्य, चोरी और विषय संरक्षण की प्रवृत्ति है, अतः इन प्रवृत्तियों के आधार पर रौद्रध्यान के भी चार प्रकार माने गए हैं।- १. हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान, २. मृषानुबंधी रौद्रध्यान, ३. चौर्यानुबन्धी रौद्रध्यान तथा ४ विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान ।
ज्ञानार्णव में रौद्रध्यानी के दुष्टता, दण्ड की कठोरता, धूर्तता, कठोरता और स्वभाव में निर्दयता आदि आभ्यन्तर चिह्नों तथा अग्नि के कण के समान लाल नेत्र, भृकुटियों की कुटिलता, शरीर की भयानक आकृति, कांपना और पसीना आदि आना इत्यादि बाह्य चिह्नों का उल्लेख मिलता है। उपा० यशोविजय के अनुसार उत्सन्न दोषत्व (बहुलता से हिंसादि में से किसी एक में बार-बार प्रवृत्ति करना), बहुदोषत्व (हिंसादि अनेक दोषों में बहुलता से प्रवृत्त होना), नानादोषत्व (अज्ञानवश हिंसादि नाना दोषों में प्रवृत्त होना), आमरणान्त अथवा मारण दोषत्व (मरण पर्यन्त हिंसादि कर्मों के लिए पश्चात्ताप न करके उनमें प्रवृत्ति करते रहना) हिंसादि में प्रवृत्ति तथा पाप करके खुश होना, निर्दयता, पश्चात्ताप का अभाव, दूसरों को आपत्ति में देखकर अत्यन्त अभिमान करना अथवा हृदय में हर्षित होना आदि रौद्रध्यान के लक्षण हैं। रौद्रध्यान में अतिसंक्लिष्ट ( अत्यन्तमलिन) रूपकर्मों के परिणाम के कारण कापोत, नील और कृष्ण - ये तीन लेश्याएँ होती हैं। यह देश विरति नामक पंचम गुणस्थान तक के जीवों को होता है। रौद्रध्यान उत्पन्न होकर प्राणियों के तीनोंलोकों की लक्ष्मी को उत्पन्न करने वाले धर्म रूप वृक्ष को आधे क्षण में ही जलाकर भस्म कर देता है। रौद्रध्यानी सामान्यतः नरक गति में जाता है।"
३. धर्मध्यान
मन को एकाग्र करना 'ध्यान' है। वैसे तो हर समय किसी न किसी विषय में मन अटका रहने के कारण व्यक्ति को कोई न कोई ध्यान रहता ही है, परन्तु वे सब राग-द्वेष मूलक होने से श्रेयमार्ग में अनिष्ट हैं । अतः धार्मिक कार्यों में चित्त की एकाग्रता का होना 'धर्मध्यान' है ।
धर्मध्यान के भेद
जैनागमों तथा उत्तरवर्ती ग्रन्थों में धर्मध्यान को चार प्रकार का बताया गया है। १. आज्ञाविचय,
२.
३.
४.
५.
६.
७.
रुद्रः क्रूराशयः प्राणी रौद्रकर्मास्य कीर्तितम् ।
रुद्रस्य खलु भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते ।।- ज्ञानार्णव, २४/२
भगवतीसूत्र, २५/७ औपपातिक सूत्र ३०वां अधिकार स्थानांगसूत्र स्थान ४ तत्त्वार्थसूत्र १/३६: ज्ञानार्णव, २४ / ३: अध्यात्मसार, ५/१६ / ११, १२
क्रूरता दण्डपारुष्यं वंचकत्वं कठोरता ।
निस्त्रिंशत्वं च लिंगानि रौद्रस्योक्तानि सूरिभिः ।।
विस्फुलिंगनिभे नेत्रे भ्रूवक्रा भीषणाकृतिः ।
कम्पस्वेदादिलिंगानि रौद्रे बाह्यानि देहिनाम् ।। ज्ञानार्णव, २४ / ३५, ३६
अध्यात्मसार, ५/१६/१५, १६, ध्यानशतक, २६
ज्ञानार्णय, २४ / ३४; अध्यात्मसार, ५/१६/१४
(क) रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात् पंचगुणभूमिकम्
ज्ञानार्णव, २४ / ३४
(ख) देशविरतिपर्यन्तं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् ।। - अध्यात्मसार, ५/१६/१३
ज्ञानार्णव, २४ / ३८
ज्ञानार्णव, २४ / ४२ अध्यात्मसार, ५/१६/१६
227
८.
६.
भगवतीसूत्र, २५/७ स्थानांगसूत्र, ४ / १: औपपातिकसूत्र ३०वां अधिकार; तत्त्वार्थसूत्र ६/३७
१०. ज्ञानार्णव, ३० / ५. योगशास्त्र, १० / ७, अध्यात्मसार, ५/१६/३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
J
www.jainelibrary.org