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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
से जो संक्लेशतापूर्ण चिन्तन होता है, वह आर्तध्यान कहलाता है। अनिष्ट वस्तु का संयोग, प्रतिकूल वेदना, इष्ट वस्तु का वियोग और भोग की लालसा, ये दुःख की उत्पत्ति के मुख्य चार कारण हैं। इन्हीं के आधार पर आ० शुभचन्द्र, उपा० यशोविजय तथा अन्य जैनाचार्यों ने आर्तध्यान के भी चार भेद माने हैं - १. अनिष्टसंयोग आर्तध्यान, २. रोगचिन्ता आर्तध्यान, ३. इष्टवियोग आर्तध्यान तथा ४. निदान आर्तध्यान। ___ आ० शुभचन्द्र ने शंका, शोक, भय, प्रमाद, झगड़ालु वृत्ति, चिन्ता, भ्रान्ति, व्याकुलता, पागलपन, विषयों की अभिलाषा, निरंतर निद्रा, शरीर की जड़ता, परिश्रम और मूर्छा आदि लक्षणों से आर्तध्यानी की पहचान बताई है। __ उपा० यशोविजय के अनुसार आर्तध्यानी में क्रन्दन, (शोकातुर होकर अश्रुपात करना), शेचन (अत्यन्त शोक-विलाप करना) परिदेवन (दीनता भरे वचन बोलना, झूरना), ताडन (पीटना) आदि लक्षण दिखाई देते हैं। उनके अनुसार आर्तध्यानी में अन्य लक्षण भी पाये जाते हैं। जैसे - अपने निष्फल हुए कृत्य की निन्दा करना, दूसरों की सांसारिक सम्पत्ति की प्रशंसा करना, विस्मित होकर उन सम्पत्तियों के लिए प्रार्थना करना तथा उन्हें प्राप्त करने के लिए अत्यन्त लालायित रहना।
आर्तध्यानी के कापोत, नील और कृष्ण - ये तीन लेश्याएँ होती हैं।६।।
आर्तध्यान की उत्पत्ति के निम्नलिखित हेतु (कारण) हैं - १. प्रमत्तता, २. इन्द्रिय-विषयों में लोलुपता, ३. धर्म से विमुखता, ४. जिनवचनों से निरपेक्षता।"
आर्तध्यान प्रथम गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसयंत नामक छठे गुणस्थान तक के साधकों को होता है। प्रथम पांच गुणस्थानों में चारों प्रकार का आर्तध्यान हो सकता है। छठे गुणस्थान में निदान आर्तध्यान नहीं होता। वह पूर्ववर्ती पांच गुणस्थानों में ही संभव है। ___ राग-द्वेष, मोहयुक्त प्राणी आर्तध्यान के कारण संसार की वृद्धि करता है और सामान्यतः तिर्यंच गति में जाता है।
१. (क) अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम् ।
रुक्प्रकोपातृतीयं स्यान्निदानात्तुर्यमङ्गिनाम् ।। - ज्ञानार्णव, २३/२२ (ख) अध्यात्मसार, ५/१६/४.५; द्रष्टव्य : स्थानांगसूत्र, ४/२४८ ज्ञानार्णव, २३/२२; अध्यात्मसार, ५/१६/४.५, भगवतीसूत्र, २५/७: औपपातिक सूत्र, ३०वां अधिकार स्थानांगसूत्र, स्थान,४; तत्त्वार्थसूत्र, ६/३१-३४ ज्ञानार्णव, २३/४१ अध्यात्मसार, ५/१६/७ मोघं निन्दन्निजं कृत्यं, प्रशंसन् परसम्पदः । विस्मितः प्रार्थयन्नेताः प्रसक्तश्चैतदर्जने ।।- वही, ५/१६/८ ज्ञानार्णव, २३/३८; अध्यात्मसार, ५/१६/६ अध्यात्मसार, ५/१६/६ (क) संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते ।
प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा ।।-- ज्ञानार्णव, २३/३७ (ख) प्रमत्तान्तगुणस्थानानुगमेतन्महात्मना। - अध्यात्मसार, ५/१६/१० (क) अनन्तदुःख संकीर्णमस्य तिर्यग्गतिः फलम् । - ज्ञानार्णव, २३/४० (ख) सर्वप्रमादमूलत्वात्त्याज्यं तिर्यग्गतिप्रदम् | - अध्यात्मसार, ५/१६/१०
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