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________________ आध्यात्मिक विकासक्रम 215 बनाने का प्रयत्न करता है। उपा० यशोविजय ने 'भावप्राणायाम' का विवेचन करते हुए बहिवृत्ति को रेचक, अन्तर्वृत्ति को पूरक तथा अन्तर्वृत्ति के स्तम्भन/निरोध को कुंभक कहा है। उनके अनुसार बाह्य भाव का रेचन करके अन्तर्भाव का पूरण करना और निश्चित अर्थ में कुंभक करना 'भावप्राणायाम' है। दूसरे पतञ्जलि आदि योगाचार्यों ने प्राणायाम से धारणा की योग्यता बढ़ने, प्रकाशावरण के क्षीण होने की जो बात कही है, वह साधक की योग्यता पर निर्भर है। आत्म-योग्यता (आत्म-सामर्थ्य) के सध जाने पर ही ऐसा होना सम्भव है। आ० हरिभद्र ने भी प्राणायाम से 'भावप्राणायाम' अर्थ स्वीकार किया है। अध्यात्ममूलक तपोयोग में भी भाव को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यद्यपि हरिभद्र के ग्रन्थों पर पातञ्जलयोग, हठयोग एवं अन्य साधना-प्रणालियों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और उन्होंने भावमलों की अल्पता सूचित करने के लिए दीप्रादृष्टि को प्राणायाम के सदृश भी बताया है, परन्तु प्राणायाम के स्वरूप-विधि आदि पर कोई प्रकाश नहीं डाला। परवर्ती जैनाचार्यों में आ० शुभचन्द्र ने प्राणायाम को मनोविजय का साधन और आ० हेमचन्द्र ने इसे ध्यान की सिद्धि तथा मन को एकाग्र करने का आवश्यक साधन बताया है। आ० शुभचन्द्र आदि जैनाचार्यों ने प्राचीन योग-परम्परा में प्रचलित प्राणायाम के तीन प्रकारों रेचक, पूरक और कुम्भक का ही वर्णन किया है, जबकि आ० हेमचन्द्र ने इन तीन प्रचलित प्राणायामों में प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और अधर, इन चार प्रकार के अन्य प्राणायामों को जोड़कर सात प्रकार के प्राणायाम की चर्चा भी की है। आ० शुभचन्द्र ने 'परमेश्वर' नामक एक अन्य प्राणायाम का भी उल्लेख किया है। जैन-परम्परा में प्राणायाम के सम्बन्ध में दो मत मिलते हैं। प्रथम मत के अनुसार प्राण का निरोध करने पर शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती है, शरीर में पीड़ा होने से मन में चंचलता उत्पन्न होती है। पूरक, कुम्भक और रेचक में परिश्रम करना पड़ता है। परिश्रम करने से मन में संक्लेश उत्पन्न होता है به سه १. रेचक: स्यादबहिर्वृत्तिरन्तर्वृत्तिश्च पूरकः । कुम्भकः स्तंभवृत्तिश्च प्राणायामस्त्रिधेत्ययम् ।। - द्वात्रिंशदवात्रिंशिका, २२/१७ ततः क्षीयते प्रकाशावरणम् | धारणासु च योग्यता मनसः ।- पातञ्जलयोगसूत्र, २/५२, ५३ धारणायोग्यता तस्मात प्रकाशावरणक्षयः । अन्यैरुक्तः क्वचिच्चैतधुज्यते योग्यतानुगम् ।। -द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/१८ सुनिर्णीतस्वसिद्धान्तैः प्राणायामः प्रशस्यते । मुनिभियानसिद्धयर्थं स्थैर्यार्थ चान्तरात्मनः ।। अतः साक्षात् स विज्ञेयः पूर्वमेव मनीषिभिः । मनागप्यन्यथा शक्यो न कर्तुं चित्तनिर्जयः ।। - ज्ञानार्णव, २६/४१,४२ प्राणायामस्ततः कैश्चिदाश्रितो ध्यानसिद्धये । शक्यो नेतरथा कर्तुं मनःपवननिर्जयः ।। - योगशास्त्र. ५/१ (क) रेचकः पूरकश्चैव, कुम्भकश्चेति स त्रिधा | - योगशास्त्र, ५/४ (ख) त्रिधा लक्षणभेदेन संस्मृतः पूर्वसूरिभिः । पूरकः कुम्भकश्चैव रेचकस्तदनन्तरम् ।। - ज्ञानार्णव, २६/४३ (ग) रेचकः स्यादबहिर्वृत्तिरन्तर्वृत्तिश्च पूरकः । कुम्भकः स्तंभवृत्तिश्च प्राणायामस्त्रिधेत्ययम् ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/१७ प्रत्याहाररतथा शान्तः उत्तरश्चाधरस्तथा । एभिर्भे दैश्चुतर्भिस्तु सप्तधा कीर्त्यते परैः ।। - योगशास्त्र, ५/५ नाभिकन्दाद्विनिष्क्रान्तं हृत्पदमोदरमध्यगम्। द्वादशान्ते तु विश्रान्तं तं ज्ञेयं परमेश्वरम्।। - ज्ञानार्णव, २६/४७ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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