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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
है, जिससे चित्त को एकाग्र करने में सरलता होती है। साधक की बाह्याभिमुखीवृत्ति अन्तर्मुखी होने लगती है। परिणामस्वरूप साधक का उत्थान नामक दोष नष्ट हो जाता है और तत्त्वश्रवण नामक गुण उत्पन्न हो जाता है। इस दृष्टि में अपूर्व ज्ञान का उदय तो होता है परन्तु उस ज्ञान में सूक्ष्म बोध नहीं हो पाता।' इस अवस्था में साधक को धर्म के प्रति प्राणों से भी अधिक प्रेम होने लगता है।
आ० हरिभद्र ने 'दीप्रादृष्टि' का वर्णन अत्यन्त विस्तार से किया है। इस प्रकरण में उन्होंने वेद्यसंवेद्य, अवेद्यसंवेद्य, कुतर्क, परोपकार, प्रमाणमीमांसा, अनेकान्तदृष्टि, भक्ति, इष्टापूर्तकर्म अर्थात् परार्थ कूप,तडाग आदि का निर्माण आदि प्रसंगों की भी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने बोध अर्थात् तत्त्वज्ञान का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त सूक्ष्म विश्लेषण किया है।
आध्यात्मिक विकास के लिए चित्त का निरोध और चित्त के निरोध के लिए प्राण का निरोध आवश्यक है, क्योंकि जब तक श्वास की प्रक्रिया चलती रहती है तब तक चित्त भी उसके साथ चंचल रहता है। जब श्वासवायु की गति स्थगित हो जाती है तब मन में भी स्थिरता/निष्पन्दता आ जाती है। इसलिए योगसूत्रकार पतञ्जलि ने चित्त को नियन्त्रित करने के उपाय स्वरूप प्राणवायु को नियन्त्रित करने का उपदेश दिया है और कहा है कि 'आसन' के सिद्ध होने पर श्वास-प्रश्वास की गति का विच्छेद होना ही 'प्राणायाम है। प्राणायाम के तीन प्रकार हैं- रेचक, पूरक और कुम्भक । पातञ्जलयोग की भाषा में इन्हें क्रमशः बाह्यवृति, आभ्यन्तरवृत्ति और स्तम्भवृत्ति कहा गया है। इसके अतिरिक्त प्राणायाम का चौथा भेद भी बताया गया है जहाँ देश, काल और संख्या के ज्ञान के बिना ही अपने आप जिस किसी देश विशेष में प्राणों की गति का निरोध होता है।
प्राचीन जैनयोग ग्रन्थों में यद्यपि योगसाधना के अंग के रूप में प्राणायाम को मान्यता नहीं दी गई, तथापि उनमें प्राप्त उल्लेखानुसार प्राचीनकाल में पूर्वज्ञान के धारक उत्कृष्ट योगी महाप्राण-ध्यान की साधना किया करते थे। पूर्वज्ञान और दृष्टिवाद अंग की विलुप्ति के साथ यह ध्यान-साधना भी विलुप्त हो गई। अब तो इस ध्यान-साधना और साधकों का उल्लेख मात्र ही शास्त्रों में प्राप्त होता है। इस महाप्राण-ध्यान-साधना के साधकों में आ० भद्रबाहु का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में भी श्वासोच्छवास युक्त कायोत्सर्ग साधना करने का विधान मिलता है। श्वासोच्छवास की सूक्ष्म प्रक्रिया की स्वीकति प्राणायाम की ही स्वीकति मानी जानी चाहिये। पश्चातवर्ती जैन ग्रन्थों में हठयोग द्वारा मान्य प्राणायाम की साधना-पद्धति एवं भद्रबाहु की महाप्राण-साधना के अनुरूप प्राणायाम का वर्णन किया गया है।
जैनयोग में 'प्राणायाम' से श्वास-प्रश्वास का निरोध अर्थ अभिप्रेत नहीं है। वहाँ प्राणायाम से 'भावप्राणायाम' अर्थ लिया गया है। यह वह अवस्था है जिसमें साधक अपने भावमलों को दूर कर निर्मल
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प्राणायामवती दीपा न योगोत्थानवत्यलम् । तत्त्वश्रवणसंयुक्ता सूक्ष्मबोधविवर्जिता ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ५७; द्रष्टव्य : द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/१६ प्राणेभ्योऽपि गुरुर्धर्मः सत्यामस्यामसंशयम् । प्राणांस्त्यजति धर्मार्थं, न धर्म प्राणसंकटे ।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ५८; द्रष्टव्य : द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, २२/२०
योगदृष्टिसमुच्चय, ६५-११७, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २२/२३ - ३२ ४. योगदृष्टिसमुच्चय, १२०-१२२. १२४-१२६
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः । -पातञ्जलयोगसूत्र, २/४६
बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः । - वही, २/५० ७. बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः | - पातञ्जलयोगसूत्र, २/५१
जैनयोग : सिद्धान्त और साधना, पृ०६२-६३ ६. आवश्यकनियुक्ति, कायोत्सर्ग अध्ययन; अमितगति श्रावकाचार, ८/६७
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