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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
उठकर जल को मलिन कर देता है उसीप्रकार पहले उपशान्त किया हुआ मोह भी साधना की शक्ति को पराजित कर देता है अर्थात् प्रथम श्रेणी (उपशमश्रेणी) वाले आत्माओं को अपने वेग से नीचे गिरा देता है। इस श्रेणी पर आरूढ़ आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान से आगे नहीं जा सकता। जबकि दूसरी (क्षपक) श्रेणी पर आरूढ़ आत्मा मोह को क्रमशः क्षीण करते-करते अन्त में सर्वथा निर्मूल कर देता है। ऐसा जीव अपने
प्रकट करके सब प्रकार के कर्मबन्धनों से छूट कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यह अवस्था बारहवें गुणस्थान की है। यद्यपि उपशम एवं क्षपक दोनों श्रेणियों के जीवों को नवाँ और दसवाँ गुणस्थान पार करना पड़ता है परन्तु आत्मशुद्धि व आत्मबल में तरतमता के कारण प्रथम श्रेणी वाले जीव दसवें गुणस्थान को पारकर अन्त में ग्यारहवें गुणस्थान में मोह से हार जाते हैं और पतित होकर निम्न श्रेणियों में पहुँच जाते हैं जबकि दूसरी श्रेणी वाले जीव दसवें गुणस्थान में इतना आत्मबल प्रकट कर लेते हैं कि अन्त में मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेते हैं। आठवें गुणस्थान में यद्यपि न तो मोह का उपशम होता है और न ही क्षय होता है, तथापि आगे किये जाने वाले कर्मों के उपशम और क्षय की अपेक्षा उपचार से इसे 'उपशमक' और 'क्षपक' कहते हैं। इस गुणस्थान में क्रोध और मान का लोप हो जाता है। कहा जाता है कि आठवें गुणस्थान में जीव 'शुक्लध्यान' रूप व्रत का पालन करता
६. अनिवृत्ति-सम्पराय गुणस्थान __साधक किसी भी श्रेणी पर आरूढ़ होकर 'अनिवृत्तिकरण' की प्रक्रिया कर सकता है। विकास की ओर बढ़ते-बढ़ते जब साधक निर्विकल्पसमाधि के अभिमुख होता है तो उसकी संज्ञा 'अनिवृत्तिकरण गुणस्थान' कही जाती है। इस अवस्था को प्राप्त सभी जीवों के परिणाम तरतमता रहित सदृश होते हैं। इस गुणस्थान में परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती, अर्थात् वे कभी नहीं छूटते। दूसरे शब्दों में इस गुणस्थान में प्रतिसमय (एक-एक समय) में एक-एक ही परिणाम होता है, क्योंकि इस एक समय में परिणामों के जघन्य व उत्कृष्ट भेद नहीं होते। अग्रिम गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में कषायों का उपशम अथवा क्षय स्थूल रूप से होता है। यह बताने के लिए ही इस गुणस्थान के नाम के साथ 'बादर-सम्पराय' शब्द जोड़ा गया है। 'सम्पराय' का अर्थ है - कषाय और 'बादर' का अर्थ है - स्थूल। आठवें गुणस्थान के परिणामों की विशुद्धि की अपेक्षा नवें गुणस्थान में परिणामों की विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक होती है। इस गुणस्थान में क्रोध, मान और माया निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु 'लोभ' नामक कषाय शेष रह जाता है।१२।
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१. प्रवचनसारोद्धार, ७००-७०८; दर्शन और चिन्तन, पृ० २७३ २. प्रवचनसारोद्धार, ६६४-६६६
दर्शन और चिन्तन, पृ० २७३-२७४
जैन सिद्धान्त, पृ०८१ 4. Fundamentals of Jainism, p. 83-84
षट्खण्डागम, १/१/१७; गोम्मटसार(जीवकाण्ड), १८-५७; गुणस्थानक्रमारोह, ३७: प्राकृतपञ्चसंग्रह. १/२०-२१: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३ पृ०४२-४३; योगशास्त्र, स्वो० वृ०१/१६
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भा० १, पृ०६७ ८. षट्खण्डागम, धवलाटीका, १/१/१७/१८३, गा० ११६
षट्खण्डागम, धवलाटीका १/१/१७/१८६ गा० १२०; गोम्मटसार(जीवकाण्ड), गा०५७ व टीका १०. तत्त्वार्थसार, २/२६
Jain Ethics, p. 216; Studies in Jain Philosophy, p. 228 १२. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ५८, गुणस्थानक्रमारोह, ७१-७२
११.
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