________________
आध्यात्मिक विकासक्रम
८. अपूर्वकरण अथवा निवृत्तिबादर गुणस्थान'
सातवें गुणस्थान तक आत्मा क्षयोपशम भाव का अनुसरण करता है अर्थात् अनन्तानुबन्धी चार कषायों और दर्शनमोह की तीन इन सात प्रकृतियों का न तो पूर्ण रूप से उपशम कर पाता है और न ही क्षय । अग्रिम गुणस्थान में आत्मा प्रमादजन्य इन अन्तर्द्वन्द्वों को जीतने के लिए एक विशेष शक्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करता है, जिससे पूर्व गुणस्थानों में अवशिष्ट मोहबल को नष्ट किया जा सके। चूंकि इस अवस्था में साधक निरन्तर शुद्धतर होने वाली अभूतपूर्व आत्म-परिणाम रूप विशुद्धि को प्राप्त करता है इसलिए इसको 'अपूर्वकरण' नामक गुणस्थान कहा गया है। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ से जीव पतित नहीं होता, अपितु उसका स्वरूप अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता जाता है।
-
विशुद्धता के तारतम्य की दृष्टि से आत्मा के परिणामों की तीन स्थितियाँ होती हैं जिन्हें जैन परिभाषा में तीन करण कहा गया है। ये तीन करण हैं १. यथाप्रवृत्तिकरण, २. अपूर्वकरण और ३ अनिवृत्तिकरण । यथाप्रवृत्तिकरण को प्रयास और साधना का परिणाम न समझते हुए एक संयोग, प्राकृतिक उपलब्धि माना गया है । यथाप्रवृत्तिकरण की पूर्व अवस्था अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में होती है, जबकि आठवें गुणस्थान में यह प्रक्रिया बदल जाती है। 'अपूर्वकरण' आठवें गुणस्थान में होता है। इस अवस्था में मानसिक तनाव और संशय पूर्णरूपेण समाप्त हो जाते हैं और आत्मा को अनुपम शान्ति का अनुभव होता है। यहीं से आत्मा की अनात्मा पर विजय यात्रा प्रारम्भ होती है। विकासगामी आत्मा को यहाँ प्रथम बार अपूर्व शान्ति की अनुभूति होती है, इसलिए यह प्रक्रिया 'अपूर्वकरण' कहलाती है। इसी प्रकरण के आधार पर ही इस गुणस्थान का नाम रखा गया है।
१.
आठवें गुणस्थान का अपर नाम 'निवृत्तिबादर गुणस्थान' भी है। 'निवृत्ति' शब्द का अर्थ है - भेद । इस अवस्था में समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में भिन्नता रहती है और बादर संज्वलन कषायों का उदय होता है, अतः इसे 'निवृत्तिबादर गुणस्थान, कहा जाता है । ६
जैन- परम्परा के अनुसार आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले जीवों की दो श्रेणियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं - उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी । चारित्रमोहनीयकर्म का उपशम या क्षय करने के लिए परिणामों की जो सन्तति होती है उसे 'श्रेणी' कहते हैं । 'श्रेणी' का अर्थ है पंक्ति या कतार। जिस श्रेणी पर जीव कर्मों का उपशम करता हुआ चढ़ता है, उसे 'उपशमश्रेणी' कहते हैं और जिस श्रेणी पर जीव कर्मों का क्षय करता हुआ चढ़ता है उसे 'क्षपकश्रेणी' कहते हैं। कहा जाता है कि दर्शन-मोह का क्षय करने वाला जीव ही 'क्षपकश्रेणी पर चढ़ सकता है और दर्शनमोह का उपशम या क्षय करने वाला जीव ही 'उपशमश्रेणी' पर चढ़ सकता है।' जिसप्रकार जल के तल में बैठा हुआ मल थोड़ा सा क्षोभ पाते ही ऊपर
२.
३.
-
४.
५.
६.
७.
८.
६.
षट्खण्डागम. १/१/१६ : गोम्मटसार ( जीवकाण्ड), ५०-५४; गुणस्थानक्रमारोह, २३: प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/२० - २१: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका, १३, पृ० ४२; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६
दर्शन और चिंतन, पृ० २७२
क) करणं त्यात्मपरिणामो भव्यते । तच्च त्रिविधमिति.......। - विशेषावश्यकभाष्य १२०२, पृ० ३०२
ख) करणं अहापवत्तं अपुव्यमनियमेव भव्वाणं । - वही, १२०२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० ४
ग)
घ) योगबिन्दु, २६४
जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ४५१
197
निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्तिः । - धवला, पुस्तक, १. पृ० १८७
समवायांगसूत्र, व्याख्या, पृ० ४३
तत्त्वार्थसार, २/२३
धवला, पुस्तक, ६, पृ० ३१७ जैनसिद्धान्त, पृ० ८१-८२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org