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आध्यात्मिक विकासक्रम
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हैं। परन्तु जिन जीवों ने कभी सम्यक्त्व प्राप्त ही नहीं किया, वे अपने विकास काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाते हैं, क्योंकि यथार्थता का अनुभव किये बिना संशय अथवा अनिश्चय नहीं होता और संशय होने पर वे इसी गुणस्थान में गिरते हैं। इसीलिए इसे विकास और पतन दोनों अवस्थाओं का सूचक माना गया है। प्राचीन ग्रन्थकारों ने इस अवस्था की तुलना दही और गुड़ के मिश्रित स्वाद से की है। ४. अविरत सम्यग्दृष्टि या असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान ___ आध्यात्मिक विकास की चतुर्थ अवस्था संयम रहित सम्यग्दर्शन की अवस्था कही जाती है। जिस जीव को सत्य या यथार्थ में दृढ़ विश्वास हो जाता है वही इस गुणस्थान में प्रवेश करता है। जैन ग्रन्थों के अनुसार जो इन्द्रिय-विषयों से विरत नहीं है, त्रस व स्थावर जीवों का रक्षण भी नहीं करता, किन्तु जिनोक्त तत्त्वों पर श्रद्धा रखता है वह 'अविरत सम्यग्दृष्टि' नामक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती कहा जाता है। कुछ ग्रन्थकारों ने इसे 'असंयत सम्यग्दृष्टि' नाम भी दिया है। आत्मा की इस अवस्था में मोहनीय कर्म की शिथिलता के कारण जीव को सम्यग्दर्शन तो प्राप्त हो जाता है परन्तु चारित्र मोहनीयकर्म का उदय होने से वह सत्य मार्ग पर चलने में समर्थ नहीं हो पाता। यद्यपि उसमें संयमादि का पालन करने की इच्छा होती है परन्तु वह उनका लेशमात्र भी पालन नहीं कर पाता। चूँकि इस अवस्था में क्रोधादि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है और जीव इन्द्रिय-सुख का भोग करता है इसलिए उसे 'अविरत सम्यग्दृष्टि' नाम दिया गया है।
चतुर्थ गुणस्थान की यह विशेषता है कि इससे आगे की सभी भूमिकाएँ सम्यग्दृष्टि युक्त होती हैं क्योंकि उनमें उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टि की शुद्धि अधिकाधिक होती जाती है। एक बार सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर विकासोन्मुख आत्मा यदि ऊपर की किसी भूमिका से पतित भी हो जाये तथापि वह पुनः कभी न कभी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती है। अतः जैनदर्शन में इस गुणस्थान को अत्यन्त महत्वपूर्ण पद प्राप्त है।
देशविरति, विरताविरत या संयतासंयत गणस्थान चतुर्थ गुणस्थान में जिस अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है, पंचम गुणस्थान में उसका
१. दर्शन और चिंतन, पृ० २६४ २. Jain Ethics, p.214 ३. गोम्मटसार(जीवकाण्ड). २२; गुणस्थानक्रमारोह, १४: तत्त्वार्थराजवार्तिक, ६/१/१४; तत्त्वार्थसार, २/२०; पञ्चसंग्रह,
१/१०/१६६: द्रव्यसंग्रह. टीका. १३/३३/२ षखण्डागम, १/१/१२; गोम्मटसार(जीवकाण्ड). २७-२६: गुणस्थानक्रमारोह, १६: प्राकृतपंचसंग्रह, १/११: बृहद्रव्यसंग्रह, टीका,
१३ पृ० ४१: योगशास्त्र, स्वो० वृत्ति, १/१६ ५. गोम्मटसार(जीवकाण्ड), २६: प्राकृतपञ्चसंग्रह, ११; धवला, पुस्तक, १ पृ० १७३; गुणस्थानक्रमारोह. १६: पृ० १२; भावसंग्रह, २६१;
लोकप्रकाश. ६-३/११५७
तत्त्वार्थराजवार्तिक. ६/१/१५/१८६: धवला. पुस्तक, १, पृ० १७२: तत्त्वार्थसार, २१ ७. तत्त्वार्थसार, २/२१ ८. समवायांगसूत्र, व्याख्या, पृ० ४२
बृहद्रव्यसग्रह, टीका, गा० १३. पृ०४१: योगशास्त्र, स्वो० वृ०१/१६
दर्शन और चिंतन, पृ० २७१ ११. षट्खण्डागम, १/१/१३: गोम्मटसार(जीवकाण्ड). ३०-३१; गुणस्थानक्रमारोह, २०; प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/१२; बृहद्रव्यसंग्रह,
टीका, १३ पृ० ४१; योगशास्त्र, स्वो० वृ० १/१६
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