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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
जीव की रुचि भी सत्य में नहीं होती,' अपितु असत्य में होती है। उसे धर्म और अधर्म का ज्ञान नहीं होता । निमित्त पाकर जब भव्य जीव मिथ्यात्व को दूर कर लेते हैं, तब वे प्रथम गुणस्थान से ऊँचे उठकर सीधे चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाते हैं और जब पतित होते हैं तब पुनः इस गुणस्थान में आ जाते हैं।
२.
सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान*
जीव प्रथम गुणस्थान से द्वितीय गुणस्थान की ओर नहीं बढ़ता, अपितु आध्यात्मिक विकास की उच्चतर श्रेणियों से प्रथम श्रेणी की ओर पतित होने पर कुछ समय तक इस गुणस्थान में रुकता है। इसीलिए इस गुणस्थान को विकासावस्था न कहकर पतनावस्था का सूचक कहा गया है।
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव तो पतित होने पर इस गुणस्थान से होकर गुजरता ही है, कभी-कभी 'उपशम श्रेणी' पर चढ़ने वाला जीव भी इस अवस्था आ गिरता है। जो जीव इस गुणस्थान में आता है वह प्रथम गुणस्थान में अवश्य वापिस जाता है।
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३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान
तृतीय गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन दोनों के मिले जुले भाव रहते हैं, इसलिए इस अवस्था को 'मिश्र गुणस्थान' या 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान कहते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रथम बार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करते हुए जीव मिथ्यात्व कर्म के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति रूप तीन विभाग करता है। इनमें से उपशम सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाता तो वह अर्ध सम्यक्त्वी या अर्धमिथ्यात्वी जैसी दृष्टि वाला हो जाता है। यही 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि' नामक गुणस्थान है।"
इस गुणस्थान को संशय और तनाव की स्थिति भी कहा जा सकता है, क्योंकि जीव के परिणाम मिश्र मोहनीयकर्म के उदय से सत्य के प्रति उदासीन होते हैं। वे न तो केवल सम्यक्त्व रूप ही होते हैं और न केवल मिथ्यात्व रूप ही । इस प्रकार जीव की विवेकशक्ति विकसित न होने के कारण सन्देहशील बनी रहती है । वह तत्त्व और अतत्त्व का विवेक करने में समर्थ नहीं होती। यह अवस्था लम्बे समय तक नहीं चलती। इसका काल एक अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट) माना जाता है।" इतना अल्प समय बीत जाने के बाद संशय के नष्ट हो जाने से या तो पुनः विकसित होकर सम्यक्त्व रूप हो जाते हैं या पतित होकर प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाते हैं। जो जीव चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व को प्राप्त कर पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान में आ जाते हैं, वे ही उत्क्रान्ति काल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में पहुँचते
१:
२.
३.
४.
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धवला, पुस्तक, १, पृ० १६३: प्राकृतपंचसंग्रह, १/६ : गोम्मटसार (जीवकाण्ड), १७
Sogani, K.C. Ethical Doctrine in Jainism, p. 172
गुणस्थानक्रमारोह, ८
षट्खण्डागम, १/१/१० : गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) १६ - २० : बृहद्रव्यसंग्रहटीका, १३: प्राकृतपञ्चसंग्रह, १/४ गुणस्थानक्रमारोह, १०-१२ योगशास्त्र, स्वो० वृत्ति १/१६
११.
Studies in Jain Philosophy, p. 276; Jain Philosophy, p. 209, 210; Jain Ethics, p. 213 Studies in Jain Philosophy, p. 277
षट्खण्डागम, १/१/११: गोम्मटसार, (जीवकाण्ड). २१: गुणस्थानक्रमारोह, १३-१७: प्राकृतपंञ्चसंग्रह, १/१० तत्त्वार्थसार, २/२१
समवायांगसूत्र, व्याख्या, पृ० ४२
१०. बृहद्रव्यसंग्रहटीका, गा० १३, पृ० ४१
Jain Philosophy, p. 210
१२. समवायांगसूत्र व्याख्या, पृ० ४२
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