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योग और आचार
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६. स्याद नास्ति-अवक्तव्य
कथंचित् नहीं है, तो भी कहा नहीं जा सकता। ७. स्याद अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य कथंचित् है और नहीं है, तो भी कहा नहीं जा सकता।'
इस सप्तभंगी में अस्ति, नास्ति ओर अवक्तव्य - ये तीन भंग मूल हैं। यद्यपि अस्ति रूप विधि तथा नास्ति रूप निषेध का अनुभव तो व्यक्ति को प्रति समय होता रहता है, तथापि व्यवहार में दोनों में से किसी एक की मुख्यता और दूसरे की गौणता ही आधार होती है। दोनों को मिलाकर एक साथ विधि, और निषेध का कथन करने वाला कोई शब्द नहीं है। अतः विधि और निषेध का एक साथ कथन करने वाले शब्द या वाक्य के अभाव में विवशतापूर्वक यह कहना पड़ता है कि इन दोनों को एक साथ नहीं कहा जा सकता। इसी को अवक्तव्य नामक तीसरा भंग कहते हैं। इसप्रकार अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य -
न भंगों के संयोग से शेष चार भंग बनते हैं। उनमें से स्याद-अस्ति-नास्ति, स्यादस्ति-अवक्तव्य और स्यात-नास्ति अवक्तव्य, ये तीन द्विसंयोगी तथा स्यादस्ति-नास्ति-अवक्तव्य एक त्रिसंयोगी भंग है। इन सप्तभंगों के समूह को ही सप्तभंगी कहते हैं। सप्तभंगों के लक्षण इस प्रकार हैं - १. स्यात-अस्ति : यह भंग वस्तु के अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए विधि-विषयक बोध उत्पन्न करता है। जैसे कथंचित् यह घट है। यहाँ घट में अस्तित्व धर्म स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की दृष्टि से दर्शाया गया है। २. स्यात्-नास्ति : यह भंग धर्मान्तर का निषेध न करते हुए निषेध विषयक बोध का कथन करता है। जैसे - कथंचित घट नहीं है। यहाँ घट में नास्तित्व का कथन परचतुष्टय की अपेक्षा से है। पर की अपेक्षा से किया गया कथन निषेध रूप होता है। ३. स्यात-अस्ति-नास्ति : यह भंग एक धर्मी में क्रम से आयोजित विधि-प्रतिषेध विषयक बोध का कथन करता है। यथा -किसी अपेक्षा से घट है और किसी अपेक्षा से घट नहीं है। इसमें प्टय की अपेक्षा से अस्तित्व का और परचतुष्टय की अपेक्षा से नास्तित्व का कथन है।
-अवक्तव्य : यह भंग एक धर्मी में प्रतिपादित विधि और प्रतिषेध विषयक बोध के युगपद कथन की अवक्तव्यता का निषेध करता है। जैसे घट का कथंचित् वचन द्वारा कथन नहीं किया जा सकता। इस भंग में यह बताया गया है कि घट की वक्तव्यता (वर्णन) युगपद् में नहीं, क्रम में ही होती है। अर्थात अस्तित्व-नास्तित्व या विधि-निषेध का युगपद् वाचक कोई शब्द नहीं है, इसलिए यह कथंचित् अवक्तव्य है। ५. स्यात्-अस्ति-अवक्तव्य : यह भंग प्रथम और चतुर्थ भंग को एक साथ जोड़कर बनाया गया है। इसमें धर्मी विशेष्य में सत्त्व सहित अवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान की उत्पत्ति का कथन है। जैसे - कथंचित घट है किन्तु उसका कथन नहीं किया जा सकता। यहाँ वाक्य के पूर्वार्ध में विधि की विवक्षा करके उत्तरार्ध में युगपद् विधि-निषेध की विवक्षा की गई है। ६. स्यात्-नास्ति-अवक्तव्य : यह भंग द्वितीय और चतुर्थ भंग को जोड़कर बनाया गया है। यह धर्मी विशेष्य में असत्त्व सहित अवक्तव्य विशेषण वाले ज्ञान की उत्पत्ति का कथन करता है। जैसे - कथंचित घट नहीं है और अवक्तव्य है। यहाँ वाक्य के पूर्वार्ध में निषेध की विवक्षा करके उत्तरार्ध में युगपद् विधि-निषेध की अवक्तव्यता बताई गई है।
१. पंचास्तिकाय, १४ २. स्यादवादमञ्जरी, श्लोक २४ की व्याख्या
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