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________________ 138 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन स्यादवाद की कथन शैली - सप्तभंगी ___ स्याद्वाद का विश्लेषण करने की शैली ही 'सप्तभंगी' कहलाती है क्योंकि जैन-परम्परानुसार वस्तु के समस्त गुणों का सर्वांगीण निरूपण सात प्रकार से किया जा सकता है। सप्तभंगी का अर्थ है - विचारधारा के सात प्रकार | सप्तभंगी की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि एक वस्तु में किसी एक नियत धर्म-सम्बन्धी प्रश्न को लेकर अविरुद्ध रूप से पृथक्-पृथक् या सम्मिलित विधि-निषेध की कल्पना द्वारा 'स्यात् पद से युक्त सात प्रकार के वचन का प्रयोग 'सप्तभंगी' है।' अनन्तधर्मात्मक वस्तु में सत्-असत्, अस्तित्व-नास्तित्व, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य आदि अनेक परस्पर विरोधी धर्म विद्यमान हैं और सभी अपने-अपने स्थान पर उपयुक्त हैं। जिसप्रकार लोक-व्यवहार में परस्पर विरोधी धर्म-युगलों का विचार कथन, ज्ञान, अपेक्षा-दृष्टि के आधार पर किया जाता है, उसीप्रकार वस्तु के परस्पर विरोधी धर्मों का विचार भी अपेक्षाभेद को लक्ष्य में रखकर किया जा सकता है। इनका कथन करने के लिए स्व-पर की अपेक्षा का आश्रय लिया जाता है। स्व के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आधार हैं, और पर के कथन के लिए भी यही द्रव्यादि भाव आधारभूत होते हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु किसी न किसी द्रव्य रूप है या द्रव्य है और द्रव्य निराधार नहीं रहता। उसके रहने के लिए स्थान अवश्य होना चाहिए। अतः वह किसी न किसी क्षेत्र में रहेगा। द्रव्य का अस्तित्व त्रिकालवर्ती है, जिससे द्रव्य के रूप से रूपान्तरित होते रहने पर भी समय तो प्रत्येक स्थिति में उसके साथ रहता ही है। प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व का बोध स्वयं उसका भाव है। यद्यपि वस्तु की अवस्थाएँ अनेक रूप धारण कर लेती हैं तथापि उनकी अपनी मौलिक प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं होता। यथा जीव अजीव नहीं होता और न अजीव जीव होता है। वस्तु का स्वरूप तभी बन सकता है जब उसमें स्व की सत्ता की भाँति पर की असत्ता भी हो। अर्थात् वस्तु-स्वरूप के कथन में विधि और निषेध दोनों प्रकार के वाक्यों का प्रयोग करना पड़ता है क्योंकि प्रत्येक शब्द के मुख्य रूप से विधि और निषेध ये दो वाच्य होते हैं। प्रत्येक विधि के साथ निषेध और प्रत्येक निषेध के साथ विधि का संबंध अवश्य रहता है। एकान्त रूप से न कोई विधि संभव है और न ही कोई निषेध। स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा प्रतिषेध रूप प्रणाली अपनाई जाती है। ये और निषेध के द्वारा अपने अर्थ को बताता है तो उसके सात प्रकार होते हैं। चूंकि वस्तु के एक धर्म सम्बन्धी प्रश्न सात प्रकार से हो सकते हैं, इसलिए स्याद्वाद की कथन शैली के भंग भी सात ही होते हैं। चूँकि जिज्ञासाएँ सात ही प्रकार की होती हैं, इसलिए प्रश्न भी सात ही प्रकार के होते हैं। चूंकि शंकाएँ (संदेह) सात प्रकार की होती हैं, इसलिए जिज्ञासाएँ भी सात ही प्रकार की होती हैं। किसी भी एक ही धर्म के विषय में सात ही भंग होने से इसे सप्तभंगी कहते हैं। भंग का अर्थ है - विकल्प, प्रकार या भेद। विधि-निषेध के आधार पर सप्तभंगी रूप सात प्रकार के वचन-विन्यास का विवरण इस प्रकार है१. स्याद् अस्ति कथंचित है। २. स्याद् नास्ति कथंचित् नहीं है। ३. स्याद् अस्ति-नास्ति कथंचित् है और नहीं है। ४. स्याद् अवक्तव्य कथंचित् कहा नहीं जा सकता है। ५. स्याद् अस्ति-अवक्तव्य कथंचित है, तो भी कहा नहीं जा सकता। एकत्रवस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशाविरोधोनव्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पना स्यात्कारांकितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभंगी। - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ४/१४, उद्धृत सप्तभङ्गीनयप्रदीप प्रकरण पृ०६ प्रमाणनयतत्त्वालोक.४४/३७-४४२ २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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