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________________ 130 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन इन तीनों के भक्त – कुदेवभक्त, कुश्रुतभक्त और कुलिंगीभक्त । इन छहों की प्रशंसा करने से सम्यग्दर्शन मलिन होता है। वीतराग या अर्हत के वचनों पर शंका करना, उनकी यथार्थता के प्रति संदेह व्यक्त करना अथवा तत्त्वार्थ के श्रद्धान में शिथिलता होना। ४. शंका शंका आठ प्रकार की हो सकती है - शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थिरीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना। इनमें से प्रथम चार आ० हरिभद्र द्वारा भी स्वीकृत हैं और उनका वर्णन पीछे 1 जा चुका है। शेष चार में अज्ञानी या अशक्तजनों के कारण मोक्ष-मार्ग की निन्दा होने पर उसे दूर करने का प्रयत्न नहीं करना तथा अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करना, 'अनुपगृहन' है। प्राणियों को मोक्ष-मार्ग से भ्रष्ट होते देखकर भी उन्हें उसमें स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं करना, 'अस्थिरीकरण' है। साधर्मीजनों का सदभावनापूर्वक यथायोग्य आदर-सत्कार नहीं करना, 'अवात्सल्य' है। जैनधर्म विषयक अज्ञानता को दूर करके उसकी महिमा को प्रदर्शित करने का प्रयत्न नहीं करना या स्वयं अज्ञानतावश ऐसा आचरण करना, जिससे धर्म की निन्दा हो सकती हो, 'अप्रभावना है। स्मरणीय है कि दसवीं एवं ग्यारहवीं शती के ब्राह्मण आचार्य क्षेमेन्द्र ने दर्पदलन नामक ग्रन्थ में पूर्ववर्णित ८ मदों में से ७ अर्थात् कुल, धन, विद्या, रूप, शौर्य, दान और तप को दर्प का कारण माना है और इस दर्प को बड़ा दोष स्वीकार किया है। किन्तु जो साधक इन दोषों से बच कर स्वयं में जिनशासन में स्थिरता, धर्म की प्रभावना, जिनशासन में भक्ति, जिनशासन में कौशल तथा चतुर्विधसंघ-सेवा रूपी भूषणों को प्रतिष्ठित कर लेते हैं, वे पूर्वोक्त दोषों पर विजय प्राप्त करके सम्यग्दर्शन रूपी मनोभाव को सम्पूर्ण रूप से परिपुष्ट करके मोक्ष-साधना के राजपथ पर पहुँच जाते हैं। प्राप्तिक्रम : सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की अपेक्षा उन्हीं जीवों को है, जिन्हें वह अब तक प्राप्त नहीं हआ है, और जो मिथ्यादृष्टि में ही भटक रहे हैं। ऐसे जीवों की दो स्थितियाँ हो सकती हैं, प्रथम जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि में पड़े हुए हैं, और दूसरे जो सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके, किन्हीं कारणों से भटककर, पुनः मिथ्यादृष्टि में पतित हो गए हैं। इन दोनों में अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि में विद्यमान जीवों के लिए पुनः मिथ्यादृष्टि में पतित जीवों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कुछ सरल है। यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि, सभी मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्दर्शन के अधिकारी नहीं होते। इस प्रसंग में पातञ्जलयोग-परम्परा जैन-परम्परा से भिन्न है। पातञ्जलयोग में भव्यजीव (मोक्ष-प्राप्त कर सकने योग्य) तथा अनादि-अनन्त अभव्यजीव (जिन्हें कभी भी मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी), ऐसा कोई विभाजन नहीं है। महर्षि पतञ्जलि की दृष्टि में सभी व्यक्ति समान रूप से योग के अधिकारी हैं। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता का उदय होते ही जीव उसके उन्मुख होता है, और वह' क्षयोपशम', 'विशुद्धि', 'देशना', 'प्रायोग्य' और 'करण' इन पांच लब्धियों को प्राप्त करता है। इनमें अन्तिम १. ज्ञानार्णव,६/७*१: उपासकाध्ययन, २१/२४ क्षेमेन्द्रः सुहृदां प्रीत्या दर्पदोषचिकित्सकः । स्वास्थ्याय कुरुते यत्नं मधुरैः सूक्ति भेषजैः ।। कुलं वित्तं श्रुतं रूपं शौर्य दानं तपस्तथा । प्राधान्येन मनुष्याणां सप्तैते मदहेतवः ।। - दर्पदलन, ३.४ स्थैर्य प्रभावना भक्तिः, कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पंचाऽस्य भूषणानिः प्रचक्षते ।। - योगशास्त्र, २/१६ लब्धि का अर्थ है- प्राप्ति । प्रकृत में सम्यक्त्व ग्रहण करने के योग्य सामग्री की प्राप्ति को 'लब्धि' कहा गया है। गोम्मटसार (जीवकाण्ड). ६५०, ६५१ ५ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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