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________________ 128 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन फलस्वरूप साधक के मानस में पूर्व से विद्यमान समस्त संस्कार अवरुद्ध होते हैं, और जब समस्त संस्कार का निरोध हो जाने पर प्रज्ञा का संस्कार भी निरुद्ध हो जाता है, तब साधक निर्बीजसमाधि को प्राप्त करने में समर्थ होता है। जैन आचार्यों ने भी मिथ्यादृष्टि अपर पर्याय 'अविद्या' का निरोध योगसाधना के लिए आवश्यक माना है। उनकी यह भी मान्यता है कि मिथ्यादृष्टि का प्रतिबन्धन आरम्भ होने पर ही व्यक्ति साधना के मार्ग में आगे बढ़ पाता है। इसलिए उन्होंने मिथ्यादृष्टि के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन को सर्वप्रथम स्थान दिया है। यह मिथ्यादृष्टि अनेक प्रकार की हो सकती है। महर्षि पतञ्जलि ने अनित्य पदार्थों को नित्य समझना, अशुचि पदार्थों को शुचि समझना, दुःखमय पदार्थों को सुखमय समझना और अनात्म पदार्थों को आत्मस्वरूप समझना अविद्या है, ऐसा स्वीकार किया है। पतञ्जलि के इन अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्म शब्दों द्वारा विश्व के समस्त पदार्थों का भिन्न-भिन्न चार दृष्टियों से वर्गीकरण कर दिया गया है। जैनाचार्यों ने साधकों की सुविधा के लिए उपर्युक्त वर्गीकरण को अप्रत्यक्षतः स्वीकार करते हुए भी, प्रत्यक्षतः इसके अनेक प्रकार स्वीकार किए हैं। उदाहरणतः स्थानांगसूत्र में अधर्म को धर्म, धर्म को अधर्म, अमार्ग को सन्मार्ग, मार्ग को अमार्ग, असाधु को साधु, साधु को असाधु, अजीव को जीव, और जीव को अजीव, अमुक्त को मुक्त तथा मुक्त को अमुक्त समझना मिथ्यात्व है, ऐसा कहा गया है। आ० हेमचन्द्र ने उक्त लक्षण को दृष्टिगत रखते हुए अदेव में देवत्व बुद्धि, अगुरु में गुरुत्व बुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि रखने को मिथ्यात्व कहा है। __ आ० हेमचन्द्र प्रभृति जैन आचार्यों ने उपर्युक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त पांच प्रकार के अन्य मिथ्यात्वों की चर्चा भी की है यथा - आभिग्राहिक, अनाभिग्राहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक और अनाभोगिक। मिथ्यात्व के प्रकार - जैन दर्शन में मिथ्यात्व के ५ प्रकारों के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोणों से उल्लेख प्राप्त होते हैं। सामान्यतः मिथ्यात्व पांच प्रकार का माना गया है - १. आभिग्राहिक मिथ्यात्व परम्परागत मान्यताओं को बिना समीक्षा के अपना लेना। २. अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व साधारण अशिक्षितों की तरह बिना तत्त्वविवेक के सभी गुरुओं, देवों एवं धर्मों को मानना। ३. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व अभिमान की रक्षा के लिए असत्य मान्यताओं को हठपूर्वक पकड़े रहना। ४. सांशयिक मिथ्यात्व संशयग्रस्त बने रहकर सत्य का निर्णय न कर पाना। ५. अनाभोगिक मिथ्यात्व विवेक या ज्ञान-क्षमता का अभाव। उपा० यशोविजय ने स्थानां वर्णित मिथ्यात्व को अविद्या के रूप में स्वीकार कर १. ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा। तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कारप्रतिबंधी। तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः । - पातञ्जलयोगसूत्र, १/४८.५०.५१ अनित्याऽशुचिदुःखाऽनात्मसु नित्यशुचिसुखाऽऽत्मख्यातिरविद्या। - वही . २/५ ३. स्थानागसूत्र, १०/७/३४ योगशास्त्र. २/३ एवं स्वोपज्ञवृत्ति धर्मसंग्रह, अधिकार १, पृ० ३६; योगशास्त्र, स्योपज्ञवृत्ति, २/३. पृ० १६६ अत्राविद्या स्थानांगोक्तं दशविधं मिथ्यात्वमेव | - पातञ्जलयोगसूत्र, यशोविजयवृत्ति, २/५ ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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