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________________ योग और आचार 127 127 मनोभाव के अनेक वर्गीकृत भेद स्वीकार किये हैं, जिनमें कुछ निम्नलिखित हैं : १. निश्चय और व्यवहार-सम्यग्दर्शन' २. निसर्गज और अधिगमज-सम्यग्दर्शन सराग और वीतराग-सम्यग्दर्शन' द्रव्य और भाव-सम्यग्दर्शन ५. औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन के इन पांच वर्गों में 'निसर्गज और अधिगमज-सम्यग्दर्शन' मनोभाव की उत्पत्ति के हेतु के आधार पर वर्णित किया गया भेद है, जबकि औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन मनोभाव के प्रकार के आधार पर परिगणित हुआ है। 'द्रव्य एवं भाव-सम्यग्दर्शन' उसके विषय को आधार मानकर किया गया है, जबकि 'सराग और वीतराग सम्यग्दर्शन' श्रद्धा रूपी मनोभाव के साथ इतर मनोभाव के संश्लेष और असंश्लेष के आधार पर स्वीकृत है। 'निश्चय और व्यवहार-सम्यग्दर्शन' श्रद्धा रूपी मनोभाव के उपर्युक्त परिस्थितियों से सर्वथा भिन्न विषय और प्रवृत्ति दोनों को आधार मानकर स्वीकार किए गए हैं। इनमें निश्चय-सम्यग्दर्शन मूलतत्त्व विषयक होता है, जबकि व्यवहार-सम्यग्दर्शन सांसारिक व्यवहार अथवा उसके उपादानों से सम्बद्ध है। कहने का तात्पर्य है कि सम्यग्दर्शन के इन वर्गों में जैन आचार्यों ने स्पष्ट रूप से संकेत किया है कि सम्यग्दर्शन रूप मनोभाव को अनेक दृष्टियों से देखा और समझा जा सकता है। श्रद्धा रूपी मनोभाव अपनी अत्यन्त प्रारम्भिक अवस्था में जहाँ रुचि की अपेक्षा रखता है, वहीं उसके परिपुष्ट होने पर विविध विषयों अथवा क्रियाओं आदि के प्रति रुचि को उत्पन्न भी करता है। ये रुचियाँ भी यद्यपि अनन्त हो सकती हैं, तथापि जैन आचार्यों ने निसर्ग, उपदेश, आज्ञा, सूत्र, बीज, अभिगम, विस्तार, क्रिया संक्षेप एवं धर्म को आधार मानकर उपर्युक्त १० रुचियाँ स्वीकार की हैं। ये दसों प्रकार की रुचियाँ सम्यक्त्व की उत्पत्ति की निमित्त मानी जा सकती हैं किन्तु इनकी सत्ता सम्पूर्ण वैराग्य उत्पन्न होने के बाद (वीतराग दशा में) नहीं होती अर्थात् ये सराग सम्यग्दर्शन में ही रह सकती हैं, इसके आगे नहीं। प्रतिपक्षी भाव - मिथ्यात्व : सम्यग्दर्शन मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी भाव है। मिथ्यात्व का अर्थ है - अविद्या की स्थिति। पतञ्जलि के अनुसार अविद्या, जिसे जैन दर्शन में मिथ्यादष्टि कहा गया है, अस्मिता, राग द्वेष और अभिनिवेश का मूल कारण है। चूंकि समस्त क्लेशों के मूल में इनकी सत्ता रहती है, इसलिए इन्हें स्वयं भी क्लेश कहा जाता है। महर्षि पतञ्जलि के अनुसार चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग की साधना में प्रवृत्त होकर, निरन्तर वैराग्यपूर्वक अभ्यास करते रहने पर सम्प्रज्ञातसमाधि की सिद्धि होती है। तभी ऋतम्भराप्रज्ञा का उदय होता है, जिसके ॐs रयणसार, ४ तत्त्वार्थसूत्र, १/३: तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक.२/१/३; अनगारधर्मामृत, २/४७/१७१ सर्वार्थसिद्धि, १/२/१०/७: तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/२/२६-३१; अनगारधर्मामृत, २/५१/१७८; भगवती आराधना, ५१/१७५/१८.२१ तत्त्वार्थभाष्य सिद्धसेनवृति, १/५ श्रावकप्रज्ञप्ति, ४४: योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, २/२. उत्तराध्ययनसूत्र, २८/१६ दसविहे सरागस गर्दसणे पन्नते तंजहा निसग्गुवदेसरुई.....इत्यादि। - स्थानांगसूत्र, १०/७५ पातञ्जलयोगसूत्र. २/३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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