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________________ योग और आचार पाते।' इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सम्यग्दर्शन अध्यात्म-साधना में सिद्धि रूपी प्रासाद तक पहुँचने के लिए प्रथम सोपान है। अंग : जिस प्रकार पतञ्जलि के योगदर्शन में यम, नियमादि आठ अंगों की चर्चा के उपरान्त यमादि अंगों के अहिंसा आदि भेद स्वीकार किए गये हैं, उसी प्रकार जैनपरम्परा में सम्यग्दर्शन के निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबृंहा (उपगूढन या उपगूहन), स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना – इन आठ अंगों को स्वीकार किया गया है। इन आठ अंगों के रहने पर ही तत्त्वज्ञान अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्व, उनके प्रतिपादक शास्त्र और उनका बोध कराने वाले गुरु आदि के प्रति श्रद्धा सुदृढ़ हो पाती है । उदाहरणार्थ तत्त्वों के प्रति अथवा उनके बोधक शास्त्र एवं गुरु के प्रति शंकालु होने पर, श्रद्धा का उदय नहीं हो सकता। धर्म-फल के प्रति संदेह, और जड़ता (विद्यमान संस्कारों के प्रति मूढ़तापूर्ण अभिनिवेश) भी श्रद्धा को पनपने नहीं देते। सांसारिक विषय-भोगों के प्रति राग भी साधक को मोक्ष - मार्ग के प्रति श्रद्धालु नहीं रहने देता। अतः निराकांक्षिता (निः कांक्षित होना) भी मोक्षशास्त्र के प्रति श्रद्धा के लिए आवश्यक है । वह व्यक्ति जो श्रेष्ठ जनों के गुणों के प्रति आदरभाव नहीं रखता, सद्गुणों की वृद्धि की कामना नहीं करता अर्थात् जो उपबृंहण से शून्य है, वह भी मोक्ष-मार्ग के प्रति अपनी श्रद्धा को स्थिर नहीं रख पाता । चंचलता क्योंकि सत् और असत् दोनों ही कार्यों की ओर जीव की प्रवृत्ति कराने में प्रेरक होती है, अतः चंचलता के कारण सन्मार्ग का पथिक भटक जाता है। इसीकारण प्रतिपक्ष स्वरूप चंचलता के 'स्थिरीकरण को सम्यग्दर्शन के एक अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। न केवल अध्यात्म-साधना, बल्कि लौकिक जीवन के लिए भी सहधर्मी समाज की आवश्यकता होती है । एकाकी साधना करने वाला व्यक्ति और सहधर्मियों के प्रति उपेक्षा रखने वाला व्यक्ति, बहुधा कभी सन्देहग्रस्त होता है, कभी आपदग्रस्त । यही परिस्थितियाँ उसे अपने मार्ग से विचलित कर देती हैं। इस दृष्टि से सम्यग्दर्शन के एक अंग के रूप में 'वात्सल्य' को भी अनिवार्य माना गया है। सम्यग्दर्शन का अष्टम अंग है 'प्रभावना' अर्थात् धर्मशास्त्र के प्रचार-प्रसार की प्रवृत्ति । यह प्रवृत्ति जहाँ गुरु-ऋण से मुक्त होने का एक उपाय है, वहीं साधना और ज्ञान की पूर्णता प्राप्ति का भी एक मुख्य साधन है; क्योंकि ज्ञान की पूर्णता अधीति, बोध और आचरण के उपरान्त, उसकी सम्यक् प्रभावना या प्रचार-प्रसार से ही बन पाती है। इस तथ्य को प्राचीन आचार्यों ने निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। सम्यग्दर्शन की पूर्णता इन आठों अंगों की समष्टि से ही होती है, और उसके पश्चात् ही साधक सम्यग्ज्ञान की ओर आगे बढ़ पाता है । लक्षण: जीवाजीवप्रभृति सप्ततत्त्वों, तत्त्वज्ञान, शास्त्र एवं गुरु आदि के प्रति श्रद्धा को 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं । यह श्रद्धा एक प्रकार का मनोभाव है । कोई भी मनोभाव जनसामान्य के हृदय में समय-समय पर उत्पन्न होता है और विलीन हो जाता है। किन्तु कुछ मनोभाव किन्हीं परिस्थिति विशेष में अधिक काल तक रहा करते हैं। प्रेम, क्रोध, उत्साह, भय, विस्मय, घृणा (जुगुप्सा), हास्य एवं भक्ति, ऐसे ही भाव हैं, जो चिरकाल तक व्यक्ति विशेष में दिखाई पड़ते हैं। इन मनोभावों का काव्यादि में वर्णन होने पर उन्हें १. २. 3. ४. ज्ञानार्णव, ६/५७ (क) सिद्धिप्रसादसोपानं विद्धिदर्शनमग्रिमम् । - आदिपुराण, ६/१३१ (ख) सोवाणं पढममोक्खस्स । भावपाहुड़, १४५ उत्तराध्ययनसूत्र. २८/३१ 125 अधीतिबोधाचरणप्रचारणैः दशाश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः । चतुर्दशत्वं कृतवान् कुतः स्वयं न वेद्मि विद्यासु चतुर्दश स्वयम् ।। नैषधीयचरितम्, १/४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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