________________
124
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
सम्यग्दर्शन के समकक्ष अर्थ में पातञ्जलयोग-परम्परा में 'विवेकख्याति' का उल्लेख हुआ है, जिसे 'सत्त्वपुरुषान्यताप्रत्यय' भी कहा जाता है।''
रम्परा में जिन जीव, अजीवादि तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा गया है, उनकी चर्चा पातञ्जलयोगसूत्र में नहीं मिलती। वहाँ व्यक्त ओर अव्यक्त दो प्रकार के तत्त्वों का उल्लेख प्राप्त होता है। व्यक्त तत्त्वों में महत्तत्त्व, अहंकार, एकादश इन्द्रियों, पंचतन्मात्राओं तथा पंचमहाभूतों का' तथा अव्यक्त तत्त्व में प्रकृति का परिगणन किया गया है।
जहाँ तक आ० हेमचन्द्र द्वारा निर्दिष्ट सम्यग्दर्शन के स्वरूप का प्रश्न है, वह पतञ्जलि की मान्यता के सर्वथा अविरुद्ध तथा अनुकूल है। पतञ्जलि ने चित्तवृत्तिनिरोध के अनेक उपायों की चर्चा करते हुए ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया है। ईश्वरप्रणिधान को स्पष्ट करते हए उन्होंने ईश्वर के स्वरूप का विश्लेषण करके उसे सभी गुरुओं का भी गुरु कहा है और उसके वाचक पद प्रणव का जप और ईश्वर के प्रति सर्वात्मना समर्पण आवश्यक माना है। यहाँ ईश्वर को 'परमगुरु' कहना और भाष्यकार द्वारा महर्षि पतञ्जलि के तात्पर्य को स्पष्ट करते हुए, परम गुरु के प्रति सर्वात्मना समर्पण की चर्चा में सम्यग्दर्शन की उपर्युक्त भावना ही बीजरूप में प्रतिष्ठित दिखाई पड़ती है।
इसके अतिरिक्त महर्षि पतञ्जलि ने योग के आठ अंगों में "स्वाध्याय' को योग के एक अंग के रूप में स्वीकार किया है। भाष्यकार द्वारा “स्वाध्यायःप्रणवादि पवित्राणाम् जपो मोक्षशास्त्राध्ययनं वा' कहकर जो स्पष्टीकरण किया गया है, वह तत्त्वज्ञान के प्रतिपादक अथवा मोक्षमार्ग के प्रतिपादक ग्रन्थों के प्रति साधक में परम श्रद्धा होने की अनिवार्यता को सूचित करता है, जो पुनः सम्यग्दर्शन का एक अन्य विशिष्ट लक्षण है। इस प्रकार जैनपरम्परा में स्वीकृत 'सम्यग्दर्शन' न केवल वेदान्त के अविरुद्ध है, अपितु पतञ्जलि की मूल भावना के अत्यन्त अनुकूल भी है।
सम्यग्दर्शन की जीवन में प्रतिष्ठा, तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित साधना की पूर्वपीठिका है। यह वह भूमि है जहाँ से भव्यप्राणी का जीवन अज्ञानान्धकार से निकलकर, सम्यक् आत्मबोध रूप ज्ञान की ओर अग्रसर होता है। सम्यग्दर्शन की प्रतिष्ठा ही सम्यग्ज्ञान की पृष्ठभूमि बनती है। दूसरे शब्दों में जब तक सम्यग्दर्शन का आविर्भाव नहीं होता, तब तक ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता और उसके अभाव में कोई भी धार्मिक प्रवृत्ति सम्यक्चारित्र की कोटि में नहीं आती। आ० शुभचन्द्र के अनुसार सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र उपलब्ध होते हैं, तथा यम, नियम, जप, तप आदि सार्थक हो सकते हैं। सम्यग्दर्शन के अभाव में समस्त ज्ञान और समस्त चारित्र मिथ्या ही बने रहते हैं। सम्यग्दर्शन के बिना सर्व ज्ञान और चारित्र के मिथ्या होने से व्यक्ति का अपना कोई मूल्य उसी प्रकार नहीं होता, जैसे अंक के बिना शून्य मूल्यहीन होता है, और ऐसे व्यक्ति कभी भी दुःखनिवृत्ति रूप मोक्ष को प्राप्त नहीं कर
ॐ5
सत्त्वपुरुषान्यताप्रत्ययो विवेकख्यातिः। - व्यासभाष्य, पृ० २६२ ते व्यक्तसूक्ष्माः गुणात्मानः।- पातञ्जलयोगसूत्र, ४/१३ ...........निःसदसन्निरसदव्यक्तमलिंगं प्रधानं तत्प्रतियन्ति।- व्यासभाष्य, पृ० २३४
सः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।-पातञ्जलयोगसूत्र, १/२६ ५. तस्य वाचकः प्रणवः । तज्जपस्तदर्थभावनम् । -वही, १/२७, २८
ईश्वरप्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं तत्फलसंयासो वा। - व्यासभाष्य, पृ० १६२ वही
ज्ञानार्णव, ६/५३ ६ वही, ६/५४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org