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________________ 110 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और ६. व्युत्सर्ग।' बाह्यतप आभ्यन्तरतप में सहायक होता है। इसलिए बाह्यतप को अन्तस्तप का एक साधन माना गया है। बाह्यतप से स्थूल शक्तियों पर अंकुश लगाया जा सकता है। तदुपरान्त मानसिक वृत्तियाँ भी साधक के वशीभूत हो जाती हैं। तप में ही चित्त को योग-साधना में समर्थ बनाने की शक्ति है। अतः योगभूमिका पर आरूढ़ होने के लिए 'तप' आवश्यक है। इसीलिए आ० हरिभद्र ने योग-साधना की पूर्वावस्था में 'तप' को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया है। उन्होंने जैनेतर परम्परा में प्रचलित चान्द्रायण, कृच्छ्र, मृत्युघ्न और पापसूदन आदि तपों का भी परिगणन किया है। उनका विचार है कि यदि जैन दृष्टि से योग सधता है, तो चान्द्रायणादि व्रतों को करने वाला भी व्रती क्यों नहीं हो सकता अर्थात् वह भी व्रती कहलायेगा। जैन-परम्परा में तो अणुव्रत और महाव्रतों का पालन करने वाला ही व्रती कहलाता है और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व साधक को व्रतों का पालन करने में असमर्थ माना जाता है। आ० हरिभद्र ने चान्द्रायणादि व्रतों को भी योग की पूर्वभूमिका में स्थान देकर योग को सम्यक् दर्शन की संकीर्ण परिभाषा से ऊपर उठाने का प्रयत्न किया है। इस विचार के पीछे, योग-साधना के प्रति आदर भाव का निर्माण करना उनका एक विशिष्ट उद्देश्य था। आ० हरिभद्र एवं उपा० यशोविजय ने उक्त चान्द्रायणादि व्रतों (क्रियायोग के अन्तर्गत परिगणित) को पापनाशक बताते हुए, उनकी विधि का विवेचन भी अपने ग्रन्थों में किया है। ५. मोक्ष-अद्वेष ___मोक्ष के प्रति द्वेषभाव न रखना अर्थात् मोक्ष के प्रति प्रीतिभाव रखना एक अनिवार्य आभ्यन्तर उपाय है, जो योग-प्राप्ति के लिए आवश्यक है। मोक्ष में न कोई विषयभोग है और न किसी प्रकार का संक्लेश। परन्तु कुछ भवाभिनन्दी जीव अतिशय राग के कारण उसी में अनुरञ्जित रहते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व मानते हैं। ऐसी रागयुक्त अवस्था में त्याग संभव नहीं। भवाभिनन्दी जीव तीव्र अज्ञान और मिथ्यात्व के कारण मोक्ष से द्वेष करने लगते हैं। शास्त्रों में भी मोक्ष के प्रति द्वेष रखने वालों के आलाप सुने जाते हैं, जो सत्पुरुषों के सुनने योग्य नहीं होते, क्योंकि सत्पुरुष तो इन्द्रिय-सुखों को भी दुःख ही मानते हैं, जबकि भवाभिनन्दी जीव इन्द्रियविषयों और उनसे प्राप्त होने वाले सुखों को ही वास्तविक सुख मानकर मोक्ष १. (क) पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं च विउस्सग्गो एसो अभिंतरो तवो ।। - उत्तराध्ययनसूत्र. ३०/३० (ख) प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/२० अदु पोरिसिं............ झायइ। - आचारांगसूत्र, ६/१/५ राई दिपि जयमाणे........झाइ।- वही ६/२/४ अकसाई विगयगेही........झाइ। - वही ६/४/१५ (क) विधिनोक्तेन मार्गेण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः । शरीर-शोषणं प्राहुस्तपसास्तप उत्तमम् ।। - योगि याज्ञवल्क्य, २/२.३ (ख) व्रतानि चैषां यथायोगं कृच्छ्रचान्द्रायणसान्तापनादीनि। - पातञ्जलयोगसूत्र, २/३२ पर व्यासभाष्य ४. (क) तपोऽपि च यथाशक्ति कर्त्तव्यं पापतापनम् तच्च चान्द्रायणं कृच्छ्र मृत्युघ्नं पापसूदनम् ।। - योगबिन्दु, १३१ (ख) तपश्चान्द्रायणं कृच्छ्रे मृत्युनं पापसूदनम् । आदिधार्मिकयोग्यं स्यादपि लौकिकमुत्तमम्।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १२/१७ योगबिन्दु, १३२-१३५ द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १२/१८-३१ (क) कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्ति गसंक्लेशवर्जिता । भवाभिनन्दिनामस्यां द्वेषोऽज्ञाननिबंधनः ।। - योगबिन्दु, १३६ (ख) मोक्षः कर्मक्षयो नाम भोगसंक्लेशवर्जितः । ___ तत्र द्वेषो दृढाज्ञानादनिष्टप्रतिपत्तितः ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १२/२२ ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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