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________________ 102 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन (ख) मधुभूमिकयोगी' __ मधुभूमिक-योगी वह है जिसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा है अर्थात् जिसने जीवों तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं की है, परन्तु उन्हें जीतने की इच्छा करता है। (ग) प्रज्ञाज्योतियोगी जिसने सभी भूतों तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, और भूतेन्द्रिय के जय से निष्पादित सर्व पाप-रचित्त-ज्ञानादि में जो कतरक्षाबन्ध अर्थात सिद्धि लाभ वाला है. तथा विशोकादि र्थात् सिद्धि लाभ वाला है, तथा विशोकादि सिद्धियों की प्राप्ति हेतु यत्नशील है,वह प्रज्ञाज्योति नामक तृतीय योगी कहा जाता है। (घ) अतिक्रान्तभावनीययोगी' चतुर्थ अतिक्रान्तभावनीय-योगी वह है, जिसने विशोका भूमि को प्राप्त करके विवेकख्याति का भी लाभ कर लिया है एवं उसके प्रति भी विरक्त है, और इसी वैराग्य के कारण विघ्नशंका से रहित जीवन्मुक्त है अर्थात् जो परम वैराग्य से युक्त है। आ. जैनयोग-मत ___ जैन-परम्परा के प्रसिद्ध आ० हरिभद्रसूरि ने निम्नलिखित चार प्रकार के योगियों की चर्चा की है - गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और निष्पन्नयोगी। इन चार प्रकार के योगियों की कल्पना तथा परिभाषा जैन-परम्परा में आ० हरिभद्र ने ही सर्वप्रथम की है। इनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है - (क) कुलयोगी जो योगियों के कुल में जन्म लेकर उनके कुल धर्मानुसार ही आचरण करते हैं, उन्हें कुलयोगी कहा जाता है। सामान्यतः योगियों के गोत्र में उत्पन्न योगियों को भी कुलयोगी कहा जाता है। उक्त लक्षण द्रव्यतः समझना चाहिए। भावतः कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाले भव्य जीवों का ही प्रस्तुत व्याख्या में समावेश हो सकता है, दूसरों का नहीं। तात्पर्य यह है कि जो योगी अपने पिछले जन्म में अपनी योग-साधना सम्पूर्ण नहीं कर पाते, बीच में ही आयुष्य पूर्ण कर लेते हैं, वे अगले जन्म में कुलयोगी के रूप में उत्पन्न होते हैं, क्योंकि पूर्व संस्कारवश उन्हें जन्म से ही योग प्राप्त होने से उनकी प्रवृत्ति योग-साधना के अनुरूप हाती है। कुलयोगी के लक्षण इस प्रकार हैं - कुलयोगी किसी से द्वेषभाव नहीं करते, देव, गुरु और ब्राह्मण (साधुवर्ग) के प्रति श्रद्धा रखते हैं । वे प्रकृति से दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध एवं जितेन्द्रिय होते हैं। कुल योगी की इस हारिभद्रीय अवधारणा पर पातञ्जलयोग सम्मत 'भवप्रत्यय' योगी की अवधारणा का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। ॐi १. ऋतम्भराप्रज्ञो द्वितीयः। - व्यासभाष्य, पृ०४४८ भूतेन्द्रियजयी तृतीयः । सर्वेषु भावितेषु भावनीयेषु कृतरक्षाबन्धः कृतकर्त्तव्यसाधनादिमान्। - वही, पृ० ४४८. ३. चतुर्थो यस्त्वतिक्रान्तभावनीयः। तस्य चित्तप्रतिसर्गः एकोऽर्थः। - वही कुलादियोगभेदेन चतुर्धा योगिनो यतः । - योगदृष्टिसमुच्चय, २०८ ये योगिनां कुले जातास्तद्धर्मानुगताश्च ये । कुलयोगिन उच्यन्ते गोत्रवन्तोऽपि नापरे || - वही. २१०, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका. १६/२१ ये प्रकृत्याऽन्येऽपि कुलयोगिन उच्यन्ते द्रव्यतो भावतश्च गोत्रचन्तोऽपि सामान्येन कर्मभूमिभव्या अपि नापरे कुलयोगिन इति। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १६/२१ पर स्वो० वृ० पातञ्जलयोगसूत्र में उल्लिखित "भवप्रत्यय साधक में भी पूर्व जन्म में किए गए योगाभ्यास के संस्कारवश जन्म से ही योग-साधना के अनुरूप प्रवृत्ति होती है। - द्रष्टव्य : पातञ्जलयोगसूत्र. १/१६ सर्वत्राद्वेषिणश्चैते गुरुदेवद्विजप्रियाः । दयालवो विनीताश्च बोधवन्तो यतेन्द्रियाः ।। - योगदृष्टिसमुच्चय. २११: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका. १६/२२ 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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