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________________ योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश 101 जिस अवस्था में 'चास्त्रिी की स्थिति प्रारम्भ होती है, उससे लेकर अन्तिम अवस्था तक देशादि भेद से चारित्री के अनेक भेद होते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि चारित्री के अनेक भेद छठे गुणस्थान से लेकर १२वें गुणस्थान तक गुणस्थानों के नामों पर आधारित हैं। छठे गुणस्थान से अन्तिम गुणस्थान की ओर बढ़ते हुए साधक के अभ्यास की अवधि जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे उसके कर्मों का क्षय हो जाता है, तब जीव सर्वज्ञ बन जाता है, और उसकी साधना समाप्त हो जाती है। १४वें गुणस्थान के अन्त में साधक को मोक्ष प्राप्त हो जाता है। प्रारम्भ में 'चारित्री' के सामर्थ्य का विकास इतना नहीं हो पाता कि वह पूर्ण रूप से चारित्रधर्म का पालन कर सके। प्रारम्भ में वह 'एक देश' से अर्थात् अंशतः चारित्रधर्म का पालन करता है। अतः उसे 'देशविरत चारित्री' कहते हैं। क्रमशः चारित्रधर्म का पालन करता हुआ वह एक कदम और आगे बढ़कर 'सर्वविरति नामक छठे गुणस्थान पर पहुँच जाता है। यहाँ वह हिंसादि समस्त पाप कर्मों का पूर्ण रूप से त्याग कर देता है, और सम्यक् रूप से चारित्रधर्म का पालन करने लगता है। इसलिए उसे 'सर्वविरत' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। 'सर्वविरत चारित्री' छठे गुणस्थान से लेकर १२वें गुणस्थान तक विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है। इसीलिए आ० हरिभद्र लिखते हैं कि वीतराग दशा प्राप्त होने तक सामायिक आदि शुद्धि के तारतम्य से तथा शास्त्रज्ञान को जीवन में क्रियान्वित करने की परिणति के अनुसार 'सर्वविरत चारित्री' अनेक प्रकार का होता है। सर्वविरत योगियों में भी कुछ श्रेणी-आरूढ और कुछ श्रेणी-अनारूढ होते हैं। श्रेणीगत योगियों में भी कुछ सयोगीकेवली और कुछ अयोगीकेवली होते हैं। अयोगीकेवली सर्वोपरि है। इसप्रकार योगाधिकारी के अनेक भेद किये जा सकते २. अधिकारी-भेद से योगी के विविध प्रकार योग-साधना के आरोहण-क्रम में योगी की विविध उच्च-उच्चतर-उच्चतम स्थितियों को ध्यान में रखकर, योगी के विविध प्रकार शास्त्रों में वर्णित किये गये हैं। अ. पातञ्जलयोग-मत पातञ्जलयोग-परम्परा में योगी के चार भेद बताए गए हैं - प्रथमकल्पिक, मधुभमिक, प्रज्ञाज्योति एवं अतिक्रान्तभावनीय। (क) प्रथमकल्पिकयोगी जो योगी प्रवृत्तमात्रज्योति अर्थात् संयम में तत्पर होने से परचित्त-ज्ञान आदि सिद्धियों के उन्मुख अभ्यास में लीन हैं, वह प्रथमकल्पिक नामक योगी कहा जाता है। देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः ।।- योगबिन्दु, ३५७ मोक्षप्राभृत, ३०: प्रवचनसार, २/१०५-१०६ सर्वार्थसिद्धि.७/२१/३५६/१२; तत्यार्थराजवार्तिक, ७/२१/३/५४७/२७: पुरुषार्थसिद्धयुपाय, १३६: वसुनन्दिश्रावकाचार, २१५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा. ३६७-३६८ सर्वार्थसिद्धि, ७/२१/३६०/१२: तत्त्वार्थराजवार्तिक,७/२१/३/५४७/२७: पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १४०: वसुनन्दिश्रावकाचार, २१६: कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३६६-३७० एसो सामाइयसुद्धिभेयओऽणेगहा मुणेयव्यो । आणापरिणइभेया अंते जा वीयरागो ति ।। - योगशतक, १६ अध्यात्मसार, १/२/८-११ चत्वारः खल्बमी योगिनः प्रथमकल्पिको मधुभूमिकः प्रज्ञाज्योतिरतिक्रान्तभावनीयश्चेति। - व्यासभाष्य, पृ०४४७ तत्राभ्यासी प्रवृत्तमात्रज्योतिः प्रथमः। - वही, पृ०४४८ ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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