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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन अनालम्बन (एकाग्रता), इन तीन योगों को अन्तर्भूत किया गया है परन्तु अध्यात्मसार में उपा० यशोविजय ने कर्मयोग के अन्तर्गत सामायिक चतुर्विंशतिस्तव, गुरुवन्दन आदि षडावश्यक क्रियाओं का परिगणन किया है। ज्ञानयोग के अन्तर्गत आत्मा के सद्भूत अर्थों का चिन्तन समाविष्ट है। कर्मयोग का सम्बन्ध बाह्य क्रियाओं से है तथा ज्ञानयोग का संबंध आन्तरिक चिन्तन से । 'अध्यात्मसार' में वर्णित इनका विषयानुकूल विवेचन इस प्रकार है कर्मयोग 88 आवश्यकादि विहित धार्मिक क्रिया का अनुष्ठान कर्मयोग है। यह योग शारीरिक चेष्टाओं से युक्त होने के कारण कर्मात्मक कहलाता है। सत् में प्रवृत्ति रूप देह का प्रशस्त राग युक्त अध्यवसाय पुण्यात्मक होता है अर्थात् शुभकर्म का बन्ध करता है। आवश्यकादि क्रिया पर राग (प्रीति) रखने से और भगवद्वचन पर बहुमानभाव ( भक्तिभाव) होने से कर्मयोग को साधने वाला साधक स्वर्ग-सुख तो प्राप्त कर सकता है, परन्तु परमपद प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि आवश्यकादि धर्म पर होने वाला राग मुख्य रूप से शुभकर्म का बंध करता है, न कि विशिष्ट कर्मनिर्जरा । विशिष्ट कर्मनिर्जरा राग भाव से नहीं होती। सरागभाव तो शुभकर्म का बंध करता है और शुभ कर्म-बंध से स्वर्गादिसुख की ही प्राप्ति होती है।' ज्ञानयोग आत्मा के विषय में एक प्रतीति ही जिसका लक्षण है, ऐसा शुद्ध तप 'ज्ञानयोग' कहलाता है। वह ज्ञानयोग इन्द्रिय विषयों से उन्मनी भाव होने (उदासीनता का अनुभव करने) के कारण मोक्ष के सुख का साधक है।" शुद्ध तप से कर्मों की विशिष्ट निर्जरा होती है। विशिष्ट निर्जरा से मोक्ष प्राप्त होता है । तप के द्वारा कर्मों का आत्मा से पृथक होना 'निर्जरा है। सभी कर्मों का निःशेष पूर्णक्षय 'मोक्ष' कहलाता है।" शुद्ध तप के द्वारा कर्मों का क्षय किया जाता है। कर्मक्षय का हेतु होने से तप को भी निर्जरा कहा गया है।" जिस अवस्था में तप से शुद्ध हुई आत्मा में ही रति रखना अर्थात् आत्म-साक्षात्कार करना एकमात्र १. २. ३. ४. ५. ६. योगविंशिका, ३ ज्ञानसार, २७/१ अध्यात्मसार, ५/१५/२ ७. वही ५/१५/५ आवश्यकादिविहितक्रिया रूपः प्रकीर्तितः । अध्यात्मसार, ५/१५/२ शारीरस्पन्दकर्मात्मा यदयं पुण्यलक्षणम् । " कर्मोऽतनोति सद्रागात् कर्मयोगस्ततः स्मृतः ।। वही ५/१५/३ (क) आवश्यकादि रागेण वात्सल्याद् भगवद्गिराम् । प्राप्नोति स्वर्गसौख्यानि न यान्ति परमं पदम् ।। वही ५/१५/४ (ख) धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुतो व सग्गसुहं । प्रवचनसार १/११ (ग) प्रतिबन्धकनिष्ठं तु स्वतः सुन्दरमप्यदः । तत्स्थानस्थितिकार्येव वीरे गीतमरागवत् । द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २१/१० ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमात्मरत्येकलक्षणम् । इन्द्रियार्थोन्मनीभावात् स मोक्षसुखसाधकः ।। अध्यात्मसार, ५/१५/५ शास्त्रवार्तासमुच्चय, १/२०, २१,९६/२२, २३: स्यादवादकल्पलता, ६/२१ कर्मणा विपाकतस्तपसा वा शाटो निर्जरा तत्त्वार्थभाष्य हरिभद्रवृत्ति, १/४ १०. कृत्स्नकर्मक्षयोमोक्षः । - तत्त्वार्थसूत्र, १० / २ ८५. ६. । ११. जम्हा निकाइयाण वि कम्माण तवेण होई निज्जरणं । तम्हा उपधाराओ, तवो इहं निज्जरा भणिया नवतत्त्वप्रकरण ११ देवगुप्तसूरिभाष्य १० । । Jain Education International - - - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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