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________________ योग का स्वरूप एवं भेद 87 का शास्त्रानुसार अभ्यास किया जाये वह 'प्रवृत्तियोग' है। जिस अवस्था में प्रवृत्तियोग के पालन में योग के बाधक कारणों की चिन्ता, भय न हों, वह 'स्थिरतायोग है। जिस अवस्था में स्थानादि समस्त अनुष्ठानयोग परहित साधक बनने लगे, वह सिद्धियोग' है। सिद्धियोग' में स्थानादि योग का आचरण करने वाले साधक अपनी आत्मा में तो शांति उत्पन्न करते ही हैं, साथ ही उस आत्मा के संसर्ग में आने वाले साधारण प्राणी भी प्रभावित होते हैं। यद्यपि इच्छा आदि चारों योग परस्पर एक दूसरे से भिन्न हैं तथापि क्षयोपशम अथवा योग्यता-भेद के आधार पर इनमें से प्रत्येक के असंख्य प्रकार माने गये हैं। स्थानादि योगांगों में प्रत्येक के प्रीति, भक्ति, वचन और 'असंग अनुष्ठान' आदि चार विभाग किये गये हैं। जो धर्म-अनुष्ठान प्रीति-रागपूर्वक किया जाता है, उसे 'प्रीति अनुष्ठान' कहते हैं। भक्तिपूर्वक धार्मिक क्रिया करने पर वह भक्ति अनुष्ठान' कहलाता है। शास्त्र अथवा शिष्ट पुरुषों के वचनानुसार आचरण करना 'वचन-अनुष्ठान' है। निरन्तर अभ्यास द्वारा चन्दन की गंध के समान सहजभाव से सत्पुरुषों द्वारा की जाने वाली क्रिया असंगानुष्ठान या असंगयोग हैं। इनमें से प्रथम दो अनुष्ठान प्रीति या भक्तिपूर्वक किये जाने के कारण लौकिक फल स्वर्ग की प्राप्ति कराते हैं तथा अन्तिम दो अनुष्ठान किसी निमित्त के बिना कर्त्तव्यभावपूर्वक किये जाने से मोक्ष के कारण हैं।" ___ संक्षेप में स्थानादि पांच योगों के तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति आदि चार-चार भेद होने से योग के बीस भेद हुए। इनमें से भी प्रत्येक के प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान, आगमानुष्ठान और असंगानुष्ठान आदि चार-चार भेद होने से योग के ८० भेद बनते हैं। ये सभी मोक्ष के कारणभूत साधन होने से योग कहे गये हैं। उदार एवं सूक्ष्मदृष्टिसूचक उक्त योग-भेद विवेचन हरिभद्रसूरि एवं उपा० यशोविजय के अतिरिक्त अन्य किसी की कृति में उपलब्ध नहीं होता। (ज) कर्मयोग और ज्ञानयोग __ मोक्ष-प्राप्ति हेतु किये जाने वाले समस्त व्यापारों को दो भागों में विभाजित किया गया है - १. कर्मयोग और २. ज्ञानयोग। कर्मयोग के अन्तर्गत स्थान एवं ऊर्ण तथा ज्ञानयोग के अन्तर्गत अर्थ, आलम्बन एवं १. तह चेव एयबाहग-चिंतारहियं थिरतणं नेयं । सव्यं परत्थसाहग-रूवं पुण होई सिद्धि त्ति ।। - योगविंशिका, गा०६ स्वसन्निहितानां स्थानादियोगशुद्ध्यभाववतामपि तत्सिद्धिविधानद्वारा परगतस्वसदृशफलसंपादक पुनः सिद्धिर्भवति। अतएव सिद्धाऽहिंसानां समीपे हिंसाशीला अपि हिंसां कर्तुं नालम्, सिद्धसत्यानां च समीपेऽसत्यप्रिया अप्यसत्यमभिधातुं नालम् । - योगविंशिका, गा०६ पर यशों०१० योगविंशिका गा०७ पर यशोविजयवृत्ति । (क) एए य चित्तरूया, तहाखओवसमजोगओ हुंति । तस्स उ सद्धापीयाइजोगओ भव्वसत्ताणं ।। -योगविंशिका, ७ (ख) एयं च पीइभत्तागमाणुगं तह असंगयाजुत्तं । नैयं चउध्विहं खलु, एसो चरमो हवइ जोगो ।। - वही. १८ (ग) ज्ञानसार, २७/७ (घ) अध्यात्मोपनिषद् ३/४१ (ड) षोडशक, १०/१० षोडशक, १०/३-८ प्रीति व भक्ति में अन्तर है। स्त्री को पत्नीवद् मानकर किया गया अनुराग प्रीति है, और माता मानकर किया गया अनुराग भक्ति है। (द्रष्टव्य : षोडशक १०/५ तथा यशोविजयवृत्ति) षोडशक, १०/६ (क) कर्मज्ञानादि भेदेन स द्विधा तत्र चादिमः । - अध्यात्मसार,५/१५/२ (ख) कर्मयोगद्वयं तत्र, ज्ञानयोग त्रयं विदुः। - ज्ञानसार, २७/२ (ग) शास्त्रवार्तासमुच्चय पर स्यादवादकल्पलता टीका, वां स्तबक, श्लोक ७ (घ) दुगमित्थ कम्मजोगो, तहा तियं नाणजोगो उ ।।-योगविंशिका.२ ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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