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________________ ( ६६ ) मेरो जोवन प्रपंच का लक ऋषिजी को वह पाठ कहाँ पर है इसे देखने को आवश्यकता उत्पन्न हुई । हमारे पार प्राचारांग सूत्र की एक टब्बार्थ वाली पोथी थी, जिसे उन्होंने देखना चाहा। बहुत देर तक वे उस पोथी के पन्ने उलटाते रहे तब मैंने कहा कि आप मुझे इस पोथी को दे दें, जिससे मैं वह पान जल्दी निकाल सकू । यू अाचारांग सूत्र का प्रथम श्रू तस्कंध तो मेरे कंठस्थ था परन्तु दूसरा श्रू तत्कंध भी मैंने कुछ२ पढ़ा था । इसलिए मैंने तुरन्त हो वह सूत्र पाठ निकालकर अमोलक ऋषिकी के हाथ में रखा तब वे यह देवकर बहुत प्रसन्न हुए और मुझे आगमों के अध्ययन की खास हिदायत की। परन्तु तपस्वोजी के साथ रहने से मुझे विशेष ज्ञान को प्राप्ति की कोई पाशा नहीं थी। कई दिनों तक हमारा उस गांव में उनके साथ समागम में रहना हुप्रा । उन्होंने जो जैन सूत्रों का मुद्रण कार्य कराया । उस की विशेष जानकारो तो मुझे बहुत वर्षों बाद हुई । उस समय तो मैं इतना ही जान सका कि ये जैन सूत्रों के बहुत अच्छे अभ्यासा हैं । चम्पालाल जी और तपस्वोजी उनके उतने प्रशंसक नहीं मालूम दिये। ये दोनों गुरू भाई आपस में बातें किया करते थे कि अमोलक ऋषि शिथिलाचारी साधु हैं, इत्यादि । वहाँ से हम चम्पालालजी के साथ विहार करते हुए अहमदनगर गए। कुछ दिन साथ रह कर चातुर्मास के दिन नजदोक आने पर हम लोगों ने वापस वारी नामक गांव की तरफ विहार किया । चम्पालाल जी वहीं अहमदनगर में रहे। येवला आदि स्थानों में होते हुए आषाढ़ महिने में हम वारी पहुँचे । येवला के पास एक गांव में जहाँ कुछ श्रावकों के १०-१५ घर थे और वहाँ कभी कोई साधुओं का आना जाना नहीं होता था, उस गांव वालों ने किसी साधु या साध्वी का चातुर्मास कराने की विनती की तो मुन्नालालजी की इच्छा वहाँ पर अलग चातुर्मास रहने को हुई । तपस्वीजी ने उनको बहुत आग्रहवालो इच्छा को जानकर वहां चातुर्मास रहने को प्राज्ञा देदो । इससे वे पिता-पुत्र दोनों वहां रह गए । इस प्रकार वारी के चातुर्मास में हम तीन हों साधु रह गए । वारी गांव का चातुर्मास ___ वहां ४-५ साध्वीयों का समुदाय भी था और श्रावक भी कुछ विशेष भावुक थे इसलिए उस चातुर्मास में हमको किसी प्रकार की न्यूनता महसुस नहीं हुई। चातुर्मास के निवास के लिए वहां पर जो एक अच्छा बड़ा अनाज के संग्रह निमित गोदाम बना हुआ था। वह पसंद किया गया । मकान ख सा लबा-चौड़ा था, बोच में एक बड़ा दरवाजा था, अगल बगल में तीन-तीन दुकानें थी और उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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