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________________ स्थानकवासो संप्रदाय का जीवनानुभव के कारण गांव का छोटा सा बाजार भो खूब चोडा प्रोर साफ सुथरा लगता था। जेन व्यापारियों के सिवा १०-२, घर अन्य दक्षिणी लोगों के थे। यह कस्वा गदावरी नदी के तट पर बसा हुआ था। इसके स मने वाले तीर पर संबच्छर नाना अच्छा सा पुराना कस्बा था । जहाँ पेशवाओं के समय में किसा जागीरदार का ठिकाणा था । इस गांव के कारण उस तालुके में वारो संवच्छर ऐमे सयुक्त नाम से वह स्थान पहचाना जाता था । उस गांव वाले श्रावकों ने तपस्वीजी की तपस्या की महिमा सुनकर ही हमें वहाँ पर चातुर्मास करने का प्रत्याग्रह किया और उन साध्वियों का भी वही चतुर्मास रहने का विचार हुआ । इसलिए उन्होंने भी तपस्वोजों को वहाँ चातुर्मास करने की प्रार्थना की । मुझे भी उस गांव की स्थिति अच्छा लगी, इसलिए मैंने भी वहाँ चातुर्मास करने का अपना विचार प्रदर्शित किया । इस प्रकार कोई महिना भर हम वारी गांव में रहे। फाल्गुन मास श्रा जाने पर उस काल का केश-लोच भी वहाँ किया । होलो के दिनों के बाद हमने वहाँ से अहमद नगर की तरफ जाने का प्रयाग किया। कई दिनों के बिहार बाद हम लोग वाम्बोरी नामक गांव में पहुँचे । उन दिनों चम्पालाल जी वहाँ ही थे। उनके साथ एक बड़ी उम्र का शिष्य भी था. जो पूर्वावस्था में कच्छ का रहने वाला था। तपस्वीजी अपने बड़े गुरू भाई से बहुत प्रानन्द पूर्वक मिले : चम्पालाल जी को बहुत हर्ष हुआ । चम्पालालजी की व्याख्यान शैली का परिचय हम उपर लिख चुके हैं। वाम्बोरी में उनका व्याख्यान सुनने के लिए कई जैन-अजैन भाई अाया करते थे, जिसका प्रभाव मेरे मन पर अच्छा पड़ने लगा। कुछ दिन बाद चम्पालाल जी के साथ हम राहूरी गांव गये। वहाँ पर हमारा अमोलक ऋषिजी नामक साधु महाराज से मिलना हुअा। वे साधु महाराज स्थानवासी सम्प्रदाय में एक अच्छे विद्वान् साध माने जाते थे । उनका नाम हमने कई दफे सुन रखा था । हमारा साधु सम्प्रदाय भिन्न था और वे ऋषि सम्प्रदाय वाले कहलाते थे। उनके गुरू त्रिलोक ऋपिजो थे । जो अहमदनगर आदि के प्रदेश में अधिकतर विचरा करते थे । त्रिलोक ऋषिजी अच्छे कवि थे, उन्होंने अनेक प्रकार के स्तवन, सज्जाय (स्वाध्याय) डाल, चीप ई अादि अनेक छ'टी-बड़ी रचनाएँ देश भाषा में की थी । अमोलक ऋषिजी ने दक्षिण हेदराबाद में रह कर जैन सूत्रों के छपवाने का सव प्रथम प्रयत्न किया था । हम साधुओं का परस्पर वन्दन व्यवहार नहीं था, तथा आहार पानी का भी परस्पर लेन देन का सम्बन्ध था, तथापि सौमनस्व भाव ठीक था । इसलिए यह साधु मिलन मुझे बहत प्रानन्द दायक लगा। मैं तो बिल्कुल नया और अधिक जानकार नहीं था तथापि उनके प्रति मेरे मन में काफी विनम्र भाव उत्पन्न हो गया था । प्रसंगवश एक बार प्राचारंग सूत्र के किसी पाठ के विषय में कोई चर्चा चल पड़ो। अमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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