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________________ ( ५० ) गांवों में रहने के कारण बोल-चाल में ठीक मालूम दिया । उसकी चौकी में कुछ गाय, भैंस और भेड़-बकरी आदि जानवर थे और घर में दो-तीन स्त्रियाँ भी थी। उनका पहनाव श्रादि भी ठीक राजस्थान के भीलों की तरह का था । वे गवाँरू निमाड़ी बोली बोलते थे, जो कुछ ता हमारी समझ में आती थी और कुछ नहीं प्राती थी। जब हम उस चौकी पर पहुँचे तब वह चौकी - दार घर में रोटी खा रहा था। हमको चौकी के नजदीक प्राते देखकर उस की दो-एक औरतें चिल्लाकर घर में घुम गई और कुछ जोर जोर से बोलने लगो । उन औरतों ने हमारे जैसे मुँह बाँधे हुए और विचित्र वेष धारण किये हुए मनुष्यों को कभी नहीं देखा था। इसने शायद वे स्त्रियां डर सी गई। चौकीदार तुरत घर से बाहर आया और हमें देखकर बोला कि बाबाजी मैं रोटी खा रहा हूँ सो श्राप लोग उस दरखत के नीचे कुछ देर ठहरें इतना कहकर वह घर के अन्दर गया और तुरन्त चौकीदार का पहनावा पहन कर और हाथ में एक अच्छी लाहे की कड़ीदार लकड़ी और जिस पन लोहे का धार-दार फलक लगा हुआ था, वह लेकर बाहर आया । साथ में डाकिये लोग जैसा डाक का थैला रखते हैं, वैसा थेला उसने अपनी बगल में लगा लिया। उसने खाने के लिए कुछ राटियां भी उस थैले में डाल ली और वह घर की औरतों कुछ कहकर रवाना हुआ, और हमको भी कहा कि चलो बाबाजी अब हम चलते हैं। हम उसके पोछेर हो लिए । उसके परों में तो अच्छी मजबूत जूतियाँ थीं, बदन पर पुलिन के जेना पह नावा था और सिर पर किसानों की सो ठीक पगड़ी बाँव रखी थी । लकड़ी को अपने कंधे पर रख ली थी और उसमें वह थैला भी लटका लिया था, जो उसकी पीठ पर लटकने लगा । चलते समय उसने बीड़ी भी सुलगाकर अपने मुँह रखली थी। चौकी से बोसेकद के फासले पर एक छोटा सा चौंतरा बना हुआ था, जिस पर भेरूजो के प्रतीक स्वरूप २ - ३ प्रस्तर खण्ड रखे हुए थे, जिन पर तेल - सिन्दूर बाद लगा हुआ था । चौकीदार उन गृहदेवों को नमस्कार करके आगे बढ़ने लगा । मेरो जोवन प्रपंच कथा हम लोग तो नंगे पैर और नगे सिर थे हमारे कंधों पर आगे पीछे पौथियों के वेष्टन लटक रहे थे। हाथ में पात्रों वालो झोलिय थी । एक हाथ में लम्बी डंडी वाला जाहरण लेकर चल रहे थे। कभी २ रजोहरण को कंधे पर भी डाल लेते थे । इस प्रकार हम ५ (पाँचों) साधु और वह चौकीदार मिलाकर छ मनुष्यों का काफिला आगे बढ़ने लगा । सुबह का समय था धूप अच्छी निकली हुई थी, इसलिए हम सब जल्दी-जल्दी पैर उठाकर आगे बढ़ने लगे। कोई १ मील तक तो सोधा समतल रास्ता था । रास्ता केवल इक्के-दुक्के मनुष्यों और पशुयों के चलने जैसा था। बाद में एक पहाड़ी की चढ़ान आयी उस पर हम श्रास्ते२ चढ़ने लगे। कंटीले वृक्षों की झाड़ियाँ भी शुरू हुई । उनके बीच में होकर हमारी छोटो सी पगडंडी जा रही थी। ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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