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________________ ( १४ ) थी । इसके लिये रात्रि के उत्तर भाग के दो तीन घंटे निश्चित किये थे रोज प्रायः तीन बजे मैं अपने बिछौने में जिसको जैन साधु संथारा कहते हैं-उठ बैठता था और धीरे धीरे पढे हुए सूत्र के पाठ का स्मरण किया करता था । बाल्यावस्था थी । कुछ निद्रा का जोर भी रहता था। लेकिन नियमित रात्रि के दो तीन घंटे पढ़े हुए ज्ञान की प्रवृत्ति करना भी आवश्यक था । श्रतः वैसा क्रम चलता रहा । कभी नींद अधिक आती थी तो मैं खड़ा होकर वह पाठ स्मरण करने लग जाता था। इस प्रकार पिछली रात के दो तीन घंटे स्वाध्याय में नियमित रूप से व्यतीत करने का अभ्यास करता रहा । मेरी जोवन प्रपंच कथा दशवैकालिक - सूत्र का पाठ कंठस्थ हो जाने पर फिर नंदो सूत्र का पाठ पढ़ना शुरू किया । धार वाले उस स्थानक के रास्ते वाले दरवाजे के ठीक सन्मुख एक अच्छे सम्पन्न श्रावक का घर था । उस घर का मुखिया श्रावक अधिकतर धर्म ध्यान करने में अपना समय व्यतीत किया करता था । उसे बहुत से थोकडों का भी ज्ञान था जो समय समय पर मेरे पास आकर बैठ जाता था और मेरे लिये भी थोकड़ों के बारे में वह कुछ शिक्षक का काम किया करता था । वह श्रावक उन दिनों नियमित नदी सूत्र का पाठ किया करता था । रोज सुबह ७ बजे से लेकर ९, १० बजे तक वह सामायिक करके अपने घरके एक अलग कमरे में बैठ जाता था और नंदो सूत्र को पुरानी, हाथ की लिखी, पोथी पर से उस सूत्र का पाठ भी किया करता था । नंदा-सूत्र जैन आगमों में दशवैकालिक सूत्र के समान ही एक प्रधान आगम ग्रन्थ माना जाता है । यह ग्रन्यं प्राकृत गद्यमय है । इसका भी ग्रन्थ प्रमाण प्रायः ७०० श्लोक जितना है । इस सूत्र में मुख्य करके ज्ञान विषयक विचार ग्रन्थित है। जैन मान्यता मुताबिक ज्ञान के कितने प्रकार और भेद, उपभेद हैं उसका विस्तृत वर्णन इस सूत्र में हैं और इसका पाठ पढ़ना एक बहुत मांगलिक और कल्याणकारी समझा जाता है । वह श्रावक नियमित रूपसे प्रायः तीन घंटे इस सूत्र का पाठ किया करता था । बहुत बार पढ़ते रहने से प्रायः यह सूत्र उसको कंठस्थ हो गया था तथापि पाठ स्मरण के लिये अपने हाथ में हस्तलिखित पोथी के पन्न े रखकर मन ही मन वाचन किया करता था। उसकी देखा देखी मुझे भी धुन लगी थी। मैं भो उसी तरह रोज त्रातः ३ घंटे उसका स्वाध्याय करता रहा । प्रायः धार के उस चतुर्मास में में नियमित नंदो सूत्र का स्वाध्याय करता रहा । इससे धीरे धीरे वह मुझे बिना किसी क्रम के यों ही कंठस्थ जैसा हो गया था । धार के उस चतुर्मास में मुझे ज्ञानाभ्यास के विषय में कुछ नया प्रकाश मिला । संयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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